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मूलारार प्रदीप ]
[ सप्तम अधिकार एकन्दाकारादि भदों के स्वरूप का निर्देश--- इष्टे रत्नत्रयादीवेच्छाकारः शुभकर्मरिण । अपराधेऽखिले मिथ्याकारोक्तातिन मे ।।२१५५।। प्रतिश्रवणयोगेसिद्धान्तार्थानां तथैव हि । गुहाशून्यगृहानिर्गमनेत्रासिकास्मृता ।।२१५६।। देवगेहगुहायतःप्रवेशे घ निषेधिका । स्वकार्यारम्भनेकार्या पृच्छागुर्वादियोगिनाम् ।।२१५७॥ गुरुसामिकायन्यैः पूर्व नि:सृष्टवस्तुनि । पुनस्तद्ग्रहणे युक्त्या प्रतिपृश्छा शुभप्रवा ॥२१५८।। सूरिसार्धामकादीनांगहीते पुस्तकादिके । सेवन तदभिप्रायेण मच्छंदनमेव तत् ॥२१५६।। गुरूपाध्यायसाधूनां धर्मोपकरणे शुभे । अग्रहोते तदर्थ या यांचा सा सनिमंत्रणा ॥२१६०।। युष्माकमह मेवेतिनिजेगुरुकूलेशुभे । निप्तर्ग:स्वात्मनस्त्याग उपसम्यत्सुवामा ॥२१६१।।
अर्थ-रत्नत्रयाविक इष्ट पदार्थों में वा शुभ कामों में इच्छाकार किया जाता है । व्रतोंके अतिचारों में वा अपराध हो जानेपर मिथ्याकार किया जाता है । सिद्धांत. शास्त्रके अर्थ सुनने पर वा ग्रहण करनेपर तथाकार किया जाता है। किसी गुफा वा सूने मकान में से जाते समय आसिका की जाती है। किसी देव के मंदिर में वा गुफादिक में प्रवेश करते समय निषेधिका की जाती है । अपने किसी कार्य के प्रारम्भ करते समय गुरु प्रावि योगियों से आपृच्छा की जाती है। किसी गुरु वा साधर्मो मुनिके पास पहले कोई वस्तु रखवी हो और फिर उसके लेने की इच्छा हो तो शुभ वेनेवाली प्रतिपृच्छा युक्तिपूर्वक की जाती है। किसी प्राचार्य वा अन्य साधर्मी मुनि की पुस्तक आदि वस्तु उनकी इच्छानुसार अपने कामके लिये लेनी हो तो छंबन नामका समाचार किया जाता है । प्राचार्य उपाध्याय वा साधु के शुभ धर्मोपकरण अपने काम के लिये लेने हों तो उसके लिये जो याचना करना है, उस समय सनिमंत्रण नामका समाचार किया जाता है । में आपका हूं इसप्रकार कहकर अपने शुभ गुरुकुल में स्वभावसे अपने प्रात्मा को समर्पण कर देना, श्रेष्ठ वचनों को कहलाने वाला उपसंपत् नाम का समाचार कहलाता है ॥२१५५-२१६१॥
पविभागी समाचार के कथन की प्रतिज्ञाएष उक्तः समाचारोवशधौधिक प्रागमे । समासेन ततश्योर' वक्ष्ये पदविभागनम् ।।२१६२।।
अर्थ-इसप्रकार जिनागम में संक्षेप से औधिक समाचार के वश मेद बतलाये हैं । अब आगे पदविभागी नामके समाचार को कहते हैं ॥२१६२।।
पदविभागो समाचार का स्वरूपसूर्यस्योद्गममारभ्य कृत्स्मेऽहोरात्रमडले । यनियमादिकं सर्वमाचरन्ति निरन्तरम् ।।२१६३।।