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মৃন্ম সৰী ]।
[ सप्तम अधिकार क्षेत्रसम्पत् समाचार का स्वरूपदज्ञानसंयमाद्याश्चमसपोनियमावयः। यमशीलताचाराः मादिगुरगराया ।।२१८५॥ पस्मिन्साम्पेशुमक्षेत्रेय तेषीमसां सप्ताम् । तस्मिनभेनिवासो यः क्षेत्रोपसम्पदेव सा ॥२१८६।।
अर्थ-जिस शुभ और समानशीतोष्ण क्षेत्रमें बुद्धिमान सज्जनों के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, संयम, श्रेष्ठतप, यम, नियम, शील, बत, प्राचार, क्षमा आदि अनेक गुण बढ़ते जांय ऐसे क्षेत्रमें निवास करना क्षेत्रसंपत् कहलाता है ।।२१८५-२१८६॥
___ मार्गोसम्पत समाचार का स्वरूपपावोरणागतवास्तव्यमुनीनां योगधारिणाम् । तपः संयमयुक्तानां गमनागमनादिकः ॥२१८७॥ परस्परं सुखप्रश्ने प्रतदृग्ज्ञानयजये । यो जिनर्गदिता शास्त्रे मार्गोपसम्पदेव सा ॥२१८८।
अर्थ--जो मुनि तप और संयमको धारण करनेवाले हैं और योग को धारण करनेवाले हैं तथा बाहर से प्राकर अपने स्थान में ठहरे हैं अथवा अपने ही संघके मुनि बाहर जाकर पाए हैं उनके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और प्रतों को वृद्धि के लिये आने जाने के समय को कुशल पार्ता पूछना, परस्पर सुखका प्रश्न करना भगवान जिनेन्द्रदेव ने अपने शास्त्रों में मार्गोपसंपत् बतलाई है ॥२१८७-२१८८।।
सुखदुःखोपसम्पस् समाचार का स्वरूप---- उपचारोमुनीन्द्राणानिमित्त सुखदुःखयोः । मठपुस्तकधर्मोपदेशदानादिभिः परैः ।।२१८६।। युरुमाकमहमवाणुकरिष्येनिखिलं वचः । इत्याविकयनशर्मदुःखोपसम्परेव च ॥२१६०।।
अर्थ-यदि किसी मुनि पर कोई सुख वा दुःख पा पड़े तो उस समय मठ पुस्तक धर्मोपदेश वा आवश्यकतानुसार अन्य पदार्थों को (आहार औषधि आदि को) देकर उनका उपचार वा उपकार करना अथवा हम सब आपके हैं, हम लोग मापके कहे हुए सब वचनों का पालन करेंगे इसप्रकार उनसे कहना सुखदुःखोपसंपत् कहलाती है ।।२१८६-२१९०॥
सूत्रसम्पत् समाचार के भेद एवं उनका स्वरूपसूत्रोपसम्पदेकाम्पार्थोपसम्पत्समाह्वया । तदा तदुभयात्रेपासूत्रोपसम्पदित्यपि ।।२१६१।। यः सूत्रपठनेयानःसूत्रोपसम्पयत्र सा। अर्थावानेन यो यत्नः सार्थोपसम्पणिता ||२१६२।। यत्नस्सनुभयेयोत्रसोपसम्पद्वयास्मिका। अधुनालसकिंचित्र क्षेपविभागिनः ।।२१६३।।
अर्थ---सूत्रसंपत्के तीन भेद हैं-सूत्रसंपत्, अर्थसंपत् और उभयसंपत् । सूत्रों