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मूलाचार प्रदीप ]
( ३२६ )
उसमें भी प्राणिसंयम के सत्रह भेद हैं ।। २१२५ ॥
काय, त्रस एवं प्रजीव संयम का स्वरूप
[ षष्ठम अधिकार
पृष्यतेजोमहकायानां वनस्पतिदेहिनाम् । यत्नेनरक्षणं यत्सपंचधा कायसंयमः ।। २१२६ ।। द्वित्रियक्ष पंचेन्द्रियाणां यत्प्रतिपालनम् । त्रसमेवेन सप्रोतश्चतुद्ध संयमः सताम् ।।२१२७ । जीवानां तृणादीनामच्छेदनं नखादिभिः । यत्ससंयमिनां प्रोक्तः संयमोऽशोषकः ।।२१२८ ।।
अर्थ - पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों की प्रयत्न पूर्वक रक्षा करना पांच प्रकार का काय संयम है । दोइन्द्रिय, सेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की रक्षा करना सज्जन लोगों के लिये चार प्रकार का त्रस संयम कहलाता है । संयमी लोग जो तृण आदि अजीब पदार्थों को भी नासून आदि से भी कभी नहीं छेवते उसको अजीवसंयम कहते हैं ।। २१२६-२१२८ ।। प्रतिलेखन एवं दुःप्रतिलेखन संयम का स्वरूप -
ज्ञानोपकररणादीनां वासस्प्रतिलेखनम् । नेत्रेणादर्शनं तस्ययत्नात्संयमनं महत् ।। २१२६ ।। पिच्छिका वारं वारं यत्प्रतिलेखनम् । दर्शनं नयनाभ्यां सः प्रतिलेखनसंयमः ॥२१३० ॥ जीवमदनबाधादिकरं शुष्प्रतिलेखनम् । तस्यसंयमनंसतंप्रभावम सरेायत् ।।२१३१ ॥ सूक्ष्मप्राणिवयाहेतु प्रमार्जनंमुहुर्मुहुः । उक्तः स जिननायेषु प्रतिलेखन संवनः । २१३२ ।।
अर्थ--- ज्ञानादिक के उपकरणों का ठीक-ठीक अच्छी तरह प्रतिलेखन न हुआ हो वा वे उपकरण नेत्रों से अच्छी तरह न देखे गये हों ऐसे पवार्थों को कोमल पोछी से प्रतिलेखन करना बार-बार प्रतिलेखन करना और बार-बार नेवोंसे देखना इसप्रकार प्राणियों की रक्षा करना प्रतिलेखन संयम कहलाता है । जीवोंको मर्दन करनेवाला वा जीवों को बाधा देनेवाला जो किसी मे प्रतिलेखन किया है उसके लिये संयम पालन करना, सब तरह के प्रमाद छोड़कर सूक्ष्म प्राणियों को दया पालन करने के लिये उन पदार्थों को बार-बार प्रमार्जन करना पोछी से शोधना भगवान जिनेन्द्रदेव के द्वारा दुः प्रतिलेखन नामका संयम कहा जाता है ॥२१२६-२१३२ ।।
उपेक्ष संयम एवं अपहरण संयम का स्वरूप
उपेक्षरणमुपेक्षा च धर्मोपकरणाविकम् । व्यवस्याप्यातिकालेमादर्शनं सम्रजन्मिनाम् ।।२१३३ ।। सम्मुनं विलोक्योपेक्षायाः संयमनं मुदुः । प्रत्यहं वनंयत्किलोपेक्षासयमोऽत्र सः । २१३४ ।। श्रथापहरणं पिछककाक्षाविवेहिनाम् । श्रन्यत्रक्षेपणं तस्मात्तस्य संयमनं परम् ।।२१३५ ।। अनिराकरणं मात्र परिरक्षणम् । यत्सोपहरस्योत्रसयमो यमिनां स्मृतः ।।२१३६ ।।