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मूलाचार प्रदीप] .
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[ षष्ठम अधिकार ____ अर्थ-संयममें मन न लगाना उपेक्षा है । धर्मोपकरणों को रखकर बहुत दिन सक भी उनको न देखा हो तो उनमें उत्पन्न हुए सम्मूर्धन जीवों को देखकर उपेक्षा का संयमन बा मिग्रह करना प्रतिदिन बार-बार उसे देखना उपेक्षासंयम कहलाता है। एकेन्द्रिय, बोइन्द्रिय आदि जोधों को पीछी से हटाकर धूसरी जगह स्थापन करना अपहरण कहलाता है उसका संयमन वा निग्रह करना, जीवों को न तो अन्यत्र स्थापन करना न जाने से रोकना प्रयत्न पूर्वक वहींपर उनकी रक्षा करना मुनियों का अपहरण नामका संयम कहलाता है ।।२१३३-२१३६।।
तीन प्रकार के योग संयम का स्वरूपमनो वधनकायानांनिसर्ग चचलात्मनाम् । ध्यानाचं निग्रहो यः सः त्रिवियो योगसंपमः ।।२१३७।।
अर्थ-मन-वचन-काय ये तीनों स्वभाव से हो चंचल हैं उनको ध्यानाविक द्वारा निग्रह करना तोन प्रकार का योगसंयम कहलाता है ।।२१३७॥
गणधरादिकदेव ने संयम के १७ भेद कहे हैं-- एतेऽत्रयोगिनां सप्तमाभेदाः प्रपिताः। संममस्यगणाधीशरागमे वतरिवाः ।।२१३८॥
अर्थ---भगवान गणधरदेव ने अपने आगम में योगियों के लिये व्रतों को शुद्ध करनेवाले ये संयम के सत्रह मेव बतलाये हैं ॥२१३८।।
इन्द्रिय संयम का स्वरूपपंचाक्षवजतस्विस्वविषयेषु विरागिभिः । व्रताच मनं मस्स पंधर्षेन्द्रियसंपमः ।।२१३६।।
अर्थ-पांचों इंद्रियां जो अपने-अपने विषयों में गमन करती हैं उनको रागरहित व्रतो पुरुष जो वमन करते हैं उसको पांच प्रकार का इन्द्रियसंयम कहते हैं ॥२१३६।।
मन संयम का स्वरूप
स्वेछयागच्छतो लोके मनसो मनिरोधनम् । ध्यानाध्ययनकर्माचे मनः संयम एव सः ॥२१४॥
अर्थ---इसप्रकार यह मन भी तीनों लोकों में अपनी इच्छानुसार परिभ्रमण करता है उसको ध्यान अध्ययन आदि कार्यों से निग्रह करना मनसंयम कहलाता है । ॥२१४०॥
उत्कृष्ट प्राणी संयम का स्वरूपचतुविधा जीवसमासा यत्र यत्नतः । रक्यन्ते योगिभिर्मुक्त्यै स प्राणिसंयमोजतः ॥२१॥