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मूवाचार प्रदीप
( ३२५)
[ षष्ठम अधिकार अर्थ- इन्द्रियों में लंपटी और शक्तिहीन जो मनुष्य तपश्चरण नहीं करते हैं उन्हें अनेक लंघन कराने वाले बहुत से कठिन रोग पाकर प्राप्त हो जाते हैं। उन इन्द्रियों से उत्पन्न हुए महापाप के फलसे उन लंपटियों का जन्म नरकादिक दुर्गतियों में होता है, जहां कि तीव्र महा दुख और सैकड़ों महा क्लेश हर समय प्राप्त होते रहते हैं ।।२११६-२१२०॥
तपाचरण करने को प्रेरणाइति मत्वा बुधानित्यंजित्वापंचाक्षतस्करान् । स्वक्ति प्रकटीकृत्यचरन्त्वन्न तपोनधम् ।।२१२१।।
____ अर्थ-यही समझकर बुद्धिमान पूरुषों को अपने पांचों इन्द्रियरूपी चोरों को जीतकर और अपनी शक्तिको प्रगट कर निरंतर पापों से सर्वथा रहित ऐसा तपश्चरण ___ करते रहना चाहिये ।।२१२१॥
वीर्याचार का स्वरूपवलं वयं निजं सर्व प्रकटीकृत्य योगिनाम् । संयमाचरणं यस्सयोर्याचारोजिनमतः ॥२१२२।।
अर्थ-योगी लोग जो अपना बल वीर्य आदि सब प्रगट करके संयमाचरणका पालन करते हैं उसको भगवान् जिनेन्द्र देव वीर्याचार कहते हैं ॥२१२२॥
बल और वीर्य का स्वरूप-- रसाहारौषधाचं श्चमनितं बलमुख्यते । वीर्य वीर्यान्तरायस्यक्षयोपशमसम्भवम् ।।२१२३।।
अर्थ-सरस पाहार और औषधि प्राति से जो सामथ्र्य उत्पन्न होती है उसको बल कहते हैं तथा वीर्यातराय कर्मके क्षयोपशम से जो सामर्थ्य उत्पन्न होती है उसको वीर्य कहते हैं ।।२१२३॥
तपादि ग्रहण करने की प्रेरणाअनमोः प्राप्यसामन्यं तपोयोगादिसंघमान् । अयुत्सव:श्च कुर्वनवनिग्रहितपराक्रमा ॥२१२४॥
___ अर्थ-इन दोनों की सामर्थ्य प्राप्त कर तथा अपनी शक्ति को न छिपा कर मुनियों को तप, योग, संयम और कायोत्सर्ग आदि धारण करना चाहिये ।।२१२४।।
संयम के भेद का कथनप्रारगीन्द्रियविभवाम्यां संयमोतिषियोमतः । सत्प्रारिणसंयमः सप्तवशप्रकार एव हि ।।२१२५।।
अर्थ-यह संयम प्राण संयम और इन्द्रिय संयम के मेव से दो प्रकार का है।