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मूलाचार प्रदीप ]
( ३२४ )
[षष्ठम अधिकार लोकान्तिकपर्वसारं गणेशादिपदंपरम् । तपः फलेन जायेत तपस्विनां जगन्नुतम् ।।२११३।।
अनन्तमहिमोपेसास्तीर्थनाविभूतयः । तपसा धीमतांसर्वा जायन्ते मुक्तिमातृकाः॥२११४॥ त्रिजगन्नायसंसेथ्यान् भोगाम पंचाक्षपोषकान् । तपोधना सभन्ते च सौख्यं वरावामगोचरम् ।।१५।।
तपोमंत्रवराकृष्टासम्पल्लोकत्रयोडवा । तरोमहात्म्यलो गुर्षी सपद्यत तपस्विनाम् ।।२११६।। तपश्चिन्तामगिदिथ्यस्तपः कस्पद्रुमोमहान् । तपो नित्यं निधानं तयः कामधेनुरूजिता ।।२११७।। यहरं यह राराध्यं यच्च लोकद्रये स्थितम् । अनध्य वस्तु तत्सर्व प्राप्यते तपसाचिरात् ।।१८।
___ अर्थ- जो पुरुष मोक्षमार्ग में लग रहे हैं और रत्नत्रयकी लक्ष्मी सुशोभित है, उनके इन्द्रियरूपी चोर पाप रूपी सुटका होशार अपने पाप भाग जाते हैं । जो बुद्धिमान इस तपश्चरण रूपी उत्कृष्ट योद्धा को साथ लेकर मोक्षमार्ग में गमन करता है उसके लिये इन्द्रियां आदि कभी भी विघ्न नहीं कर सकतीं । जो पुरुष तपश्चरणरूपी अलंकार से सुशोभित हैं उनको मोक्षरूपी कन्या अत्यंत आसक्त होकर स्वयं पाकर स्वीकार करती है इसमें कोई सन्देह नहीं है । फिर भला इन्द्रको इन्द्राणियों को तो बात ही क्या है । तपस्वी पुरुषोंको इस तपश्चरणके ही फलसे तीनों लोकों के द्वारा पूज्य ऐसा पूज्य अहमिन्द्रपद उस्कृष्ट इन्द्रपद, चक्रवर्ती का पद, श्रेष्ठ बलभद्र का पद, सारभूत लोकान्तिक का पद और उत्कृष्ट गणघरका पर प्राप्त होता है । इस तपश्चरण से ही बुद्धिमानों को अनंत चतुष्टय की महिमा से सुशोभित सबको सुख देनेवाली और मोक्षको जननी ऐसी तीर्थकरकी उत्कृष्ट विभूति प्राप्त होती है । तपस्वो पुरुषों को इस तपश्चरण के ही प्रभाव से तीनों लोकों के इन्द्रों के द्वारा सेवन करने योग्य और पांचों इन्द्रयों को पुष्ट करनेवाले ऐसे भोग प्राप्त होते हैं और वाणी के अगोचर ऐसे सुख प्राप्त होते हैं । तपस्वी पुरुषों को इस तपश्चरण के हो माहात्म्य से तपश्चरणरूपी श्रेष्ठ मंत्रसे प्राकृष्ट हुई तीनों लोकों को सर्वोत्कृष्ट संपसियां प्राप्त हो जाती है । यह तपश्चरण ही चिंतामणि रत्न है, तपश्चरण ही महान् कल्पद्रुम है, सप ही सदा रहने वाला निधान वा खजाना है और तप ही उस्कृष्ट कामधेनु है। तीनों लोकों में रहनेवाले जो बहुमूल्य पदार्थ अत्यन्त दूर हैं और जो कठिनला से प्राप्त हो सकते हैं ये सब पदार्य इस तपश्चरण से बहुत शोघ्र प्राप्त हो जाते हैं ।।२१०६.२११८।।
___ तपके अभाव में हानिये तपः कुर्वते नाहो सत्वहीनाः खलपटाः । भवेनोग व्रजस्तेषामन्त्र संघनराशिदः ।।२११६।। ततस्तोत्रमहादुःखलेशाविशतसंकुलम् । प्रक्षोस्वपापपाकेन जन्मावभाविदुगतौ ।।२१२०।।