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भूलाचार प्रदीप ]
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[ षष्ठम अधिकार श्रेष्ठ ध्यानके द्वारा जैसे-जैसे मनुष्यों के योगों को शुद्धि होती जाती है वैसे ही वैसे उनको समस्त बड़ी-बड़ी ऋद्धियां प्राप्त होती जाती है ॥२०६३-२०६६॥
ध्यान के अभाव में कार्यसिद्धि का अभावभग्नदम्तोमथाहस्ती दंष्ट्राहीनो मृगाधिपः । स्वकार्मसाधनेऽशस्तो ध्यानहीनस्तथायतिः ॥२०६७।।
अर्थ --जिसप्रकार बिना दांत का हाथी और मिना दाढ़का सिंह अपना कार्य सिद्ध नहीं कर सकता उसीप्रकार मुनि भी बिना ध्यान के अपना कार्य सिद्ध नहीं कर सकता ।।२०६७।।
ध्यान करने को प्रेरणामत्वेतिप्रवरंध्यान कारालिनिकन्दनम् । ध्यायन्तु योगिनो नित्यं मनः कृत्वातिनिश्चलम् ॥१८॥
अर्थ-इसप्रकार इस ध्यानको प्रत्यंत उत्तम और कर्मरूपी शत्रुनों को नाश करनेवाला समझकर योगियों को अपना मन निश्चल कर सदा इस ध्यान को धारण करते रहना चाहिये ॥२०१८॥
प्रतः १२ प्रकार के तपको धारण करने की प्रेरणाषोत्यभ्यन्तरं प्रोक्त सपोन्तः शत्रुघातकम् । विधेमंपरया भक्त्यातस्यारि हानये वर्षः ।।२०६६।। एतद्दारशमा प्रोक्त समासेन मया सपः । सर्वयत्नेन भुक्त्यर्थमाचरन्तु तपोधमाः ॥२१००।।
अर्थ-~-इसप्रकार भगवान जिनेन्द्रदेव ने अंतरंग शत्रुओं को नाश करनेवाला यह अभ्यन्तर तप छह प्रकार का बतलाया है । अतएव बुद्धिमानों को अपने अंतरंग शत्रुओंको नाश करने के लिये परम भक्तिसे इस तपश्चरणको धारण करना चाहिये । इस प्रकार बारह प्रकार का यह तपश्चरण हमने अत्यंत संक्षेप से कहा है। तपस्वियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये पूर्ण प्रयत्न कर इन तपश्चरणों को पालन करना चाहिये। ॥२०६६-२१००॥ यह तप स्वणं के लिये अग्नि, मलिन वस्त्र के लिये जल एवं जन्मादि रोग के लिये औषध सदृश्ययथाग्निविधिनातप्स वृतं शुमति कांचनम् । तथा कर्मकलंकी च स्वात्मा तपोग्निना भृशम् ।। वस्त्राधाः समलाब्या यबीताश्चवारिणा । भवन्ति निर्मला सहयोगी तपोछयारिणा ।। तपोमेषजयोगेन जन्ममत्युमराहणः । पंचामारातिभिःसा विलीयन्तेषराशयः ।।२१०३॥ चतुनिषरोमुतिगामीशकगणचितः । स्ववीयं प्रकटीकृत्य करोत्येव परं तपः ।।२१०४।।
अर्थ-जिसप्रकार अग्निसे तपाया हुआ सोना शीघ्र ही शुद्ध हो जाता है उसी