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मूलाचार प्रदीप]
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[ षष्ठम अधिकार एकत्ववितर्कप्रवीचार नामक शुक्लध्यान का स्वरूपएकत्येन वितरण वीचारेणातिनिश्चलम । ध्यायन्ति सीपमोहाय ध्यान द्वितीयमेवतत् ।।२।।
__ अर्थ-मोहनीय कर्मको क्षय करनेवाले जो मुनिराज शब्द अर्थ और योग के संक्रमण से रहित तथा नौ दश वा चौदह पूर्व श्रुतज्ञानके साथ-साथ किसी एक ही द्रव्य का निश्चल ध्यान करसे हैं उसको एकस्ववितर्कअवीचार नामका शुक्लध्यान कहते हैं । ॥२०८२॥
सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती शुक्लध्यान का स्वरूपकाययोगेति सूक्ष्मसंस्थितस्ययस्सयोगिनः । कथ्यतेऽत्रोपचारेण तृतीयं निश्चलं हि तत् ॥२०८३॥
अर्थ-जिस समय संयोगिकेवली भगवान अत्यन्त सूक्ष्म काय योग में निश्चल विराजमान होते हैं उस समय उनके निश्चल होने को उपचार से ध्यान कहते हैं । यह तीसरा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामका शुक्लध्यान है ॥२०१३॥
व्युपरीतक्रिया निवृत्ति शुक्लध्यान का स्वरूपयेन ध्यानेन चायोगोनिधिकयो योगभितः। यालिमुक्तिपर्व शुक्लं सच्चतुर्य क्रियासिगम् ।।४।।
___ अर्थ-प्रयोगकेवली भगवान क्रियारहित और योगरहित होकर जिस ध्यानसे मोक्ष पव प्राप्त करते हैं उसको व्युपरीत क्रियानिवृत्ति नामका चौथा शुक्लध्यान कहते हैं ॥२०६४॥
ध्यानादि के भेद से शुक्लध्यान के भेद व स्वरूपध्यानध्येयमयास्यापिध्याताम्यानफलं भवेत् । सर्वसंकल्पनिका ध्यानस्वारमानुचिन्तमम् ॥५॥ स्वात्मतत्त्वं परम्पेयं ध्यानाधयोपचपूर्ववित् । प्रन्सयोः केवलीप्रोक्त उपचाराज्निमाधिपः ।।६।। याधिसंहनमस्या सुक्लमेकस्य सस्त्रियम् । फलंसर्वार्थसिध्यन्तमाघशुक्लस्य कम्यते ।।२०६७।। केवलज्ञानसामाज्यं द्वितीयस्य परंफलम् । कृत्स्नकर्मभयो यस्यान्त्यस्यमुक्तिपदंघ्र वम् ॥२०६८)
अर्थ-ध्यान, ध्येय, ध्याता और फल के भेव से इस ध्यान के भी चार भेद होते हैं। समस्त संकल्प विकल्पोंसे रहित होकर अपने आत्माको चितवन करना शुक्लध्यान है । अपना आत्मतत्त्व ही इस ध्यामका ध्येय है। भगवान जिनेन्द्रदेव ने पहले के वो शुक्लध्यानों ध्यान करनेवाला ध्याता ग्यारह अंग चौदह पूर्वोका जानकार बतलाया है तथा अंतके दो शुक्लध्यानों के ध्याता उपचार से केबली भगवान बतलाये हैं। पहले के तीन संहनन वालों के पहला शुक्लध्यान होता है, तथा प्रथम संहनन बालों के शेष