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मूलाधार प्रदीप ]
( ३१४ )
[ षष्ठम अधिकार
रौद्रपापारिन्तानं
ध्यानं चतुविधम् । श्यायं सर्वत्र यत्नेन धमंध्यानेनमभिः || २०४० ॥ अर्थ - यह चारों प्रकार का रौद्रध्यान रौद्रकर्मों से उत्पन्न होता है, रौद्रकर्म और रौद्रभावों का कारण है, रौद्र या भयानक दुःख उत्पन्न करनेवाला है, नरकादिक रौद्रगति में उत्पन्न करानेवाला है, रौद्ररूप मन-वचन-कायसे उत्पन्न होता है और रौद्ररूप पाप शत्रुओंको उत्पन्न करनेवाला है । इसप्रकार का यह चारों प्रकार का रौद्रध्यान धर्मात्मा पुरुषों को धर्मध्यान धारण कर बड़े प्रयत्न से सर्वत्र छोड़ देना चाहिये । सब जगह इसका त्याग कर देना चाहिये ।।२०३६- २०४० ।।
ध्यान का स्वरूप और उसके बाह्य श्रभ्यन्तर भेदों का लक्षण
बाह्याध्यात्मिकमेवेन धर्मध्यानमपि द्विधा । दृढवलसदाचार तस्व सिम्ता दिलक्षणम् ।।२०४१ ।। मनोवाक्कायनिःस्पन्दं बाह्य व्यक्त सतांभुवि । प्राध्यात्मिकत्वसंवेद्यम तः शुद्धिकरं परम् ।।४२ ॥ अर्थ-व्रतों में वृढ़ रहना, सदाचार पालन करना और तत्वों का चितवन करना धर्मध्यान का लक्षण है । इस धर्मध्यानके भी बाह्य और अभ्यंतर के भेद से दो भेद हैं । ध्यान करते समय सज्जन लोगों के मन-वचन-कायकी क्रियाओं का जो बंद हो जाना है उसको बाह्य धर्मध्यान कहते हैं तथा जो अपने आत्माके हो गोचर है और प्रकरण को शुद्ध करनेवाला है उसको अंतरंग धर्मध्यान कहते हैं ।।२०४१ २०४२ ।।
धर्मध्यान के १० भेदों का कथन -
प्रायवित्रयं ध्यानमुपश्यविश्रयं ततः । ओबादिविश्वयध्यानमजीव विश्वयाह्वयम् ।।२०४३ ।। farmers ध्यानं विरागविद्ययं महत् । भावादिविषयं ध्यानं संस्थानविषयाभिवम् ॥। २०४४ तथाशा विचयंहेतु चित्रयास्यमितिस्फुटम् । धमंध्यानंमहाधर्माकरं वशविधं महत् ।। २०४५।।
अर्थ - अपायविचय, उपायवित्त्रय, जीवविचय, अजीवविचय, विपाकविचय, विरागविचय, भवविचय, संस्थानविचय, श्राज्ञाविचय और हेतुविचय इसप्रकार इस धर्मध्यान के महा धर्म उत्पन्न करनेवाले दश भेद हैं ।।२०४३ २०४५।।
अपायवित्रय धर्मध्यान का लक्षण
दुःखार्णवे भवेनामष्ट चारिणो मम् । अन्यस्य वा पुर्वाक्य मनोजित कुकर्मणाम् ॥। २०४६ ॥ factशः स्यात्कथंnter ध्यानेन तपसायवा । इतिचिन्ता प्रबंधों योऽत्रापायविचयं हि तत् ॥ ४७॥ अर्थ - अनेक दुःखों का समुद्र ऐसे इस अनादि संसारमें मैं तथा ये अन्य जीव अपनी इच्छानुसार परिभ्रमण करते चले आ रहे हैं। इसलिये ध्यान से अथवा तपश्वरण