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मुलाचार प्रदोप]
[पाठय अधिकार से मेरे अथवा अन्य जीवों के मन-वचन-कायसे उत्पन्न होनेवाले अशुभ कर्म शीघ्रता के साथ कब नष्ट होंगे इसप्रकार का चितवन करते रहना अपाय विचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ।।२०४६-२०४७॥
उपायविचय धर्मध्यान का क्षरणमनोवाकाययोगादि प्रशस्तं मे भवेत्कथम् । फर्मास्त्रविनिष्कासंध्यानेनाध्ययनेन वा ।।२०४८।। इन्युपायोऽत्र तमद्धयं चिन्त्यते यो मुभुक्षुभिः । नानोपायः श्रुसाम्यासरुपाविषयं हि तत् ।।४६ ।
अर्थ- मोक्षको इच्छा करनेवाले पुरुष अपने मन-वचन-काय को शुद्ध करने के लिये यह चितवन करते हैं कि किस ध्यान वा अध्ययन से मेरे मन-वचन-काय शुभ हो जायेंगे अथवा मेरे मन-वचन-कायसे कर्मों का आस्रव कब रुक जायगा, इसप्रकार के चित्तवन करने को तथा श्रुताभ्यास आदि अनेक उपायों से योगों को शुद्ध करने का उपाय करना उपायविषय नामका धर्मध्यान कहलाता है ।।२०४८-२०४६॥
__ जीवविचय धर्मध्यान का लक्षणउपयोगमयोजोधोमूतोंमूर्तोगुणीमहान् । शुभाशुभविधेभोक्तामोक्षगामी च तस्यात् ।।२०५०।। सूक्ष्मोसंख्यप्रवेशोऽनपराधीनोऽनिशंभ्रमेत् । इत्याध गिस्वभावानां चिन्तनं तृतीयं हि तत् ।।५।।
अर्थ-यह जीव उपयोगमय है, अमूर्त है, कर्म के सम्बन्ध से मूर्त है, गुणी है, समस्त पदार्थों में उत्कृष्ट है, शुभ-अशुभ कर्मों का भोक्ता है और उन कर्मोके नाश होने से उसी समय में मोक्षमें जा विराजमान होता है । यह जीव अत्यंत सूक्ष्म है, असंख्यात प्रदेशी है, और कोके अधीन होकर इस जन्म मरण रूप संसार में निरंतर परिभ्रमण करता रहता है। इसप्रकार जीवों के स्वरूप का चितवन करना जीवविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ॥२०५०-२०५१॥
अजीवविचय धर्मध्यान का लक्षणधर्माधर्मनभः कालयुगलाना जिमागमे । अचेतनमयानां च धर्मध्यानाय योगिनाम् ।।२०५२।। अनेकगुणपर्यायः स्वरूपचिन्तनं हृदि । ध्रौव्योत्पादध्ययैर्यत्तदजीवधिचयं परम् ।।२०५३॥
अर्थ-योगी लोग अपने धर्मध्यानकी प्राप्ति के लिये अपने हृदय में जिनागम में कहे हुए धर्म अधर्म आकाश काल और पुद्गलरूप अचेतन समस्त पदार्थों का स्वरूप उनके अनेक गुण पर्यायों के द्वारा चितवन करते अथवा उनके उत्पाद व्यय प्रौव्य गुणों के द्वारा चितवन करते हैं उसको अजीवविच्य नामका उत्कृष्ट धर्मध्यान कहते हैं।