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मूलाचार प्रदीप]
[प्रथम अधिकार है, मोक्ष तथा स्वर्ग गति का कारण है; संसार भर में कोसिको फैलाने वाला है, पाप रूपी अंधकार को दूर करने के लिये सूर्यके समान है, समस्त कल्यारणों का मूल है अतएव समस्त दोषों से रहित मुनियों को इसका पालन करना चाहिये ।।१६०॥
अचौर्य महानत का स्वरूपनाम खेटाटयो शैल, गृहारण्यपचारिषु । पतितं विस्तृतं नष्टं, स्थापितं वान्य वस्तु च ॥१६॥ सूक्ष्मं स्थूलं महद्वारुपं, गुह्यते यन्न जातुञ्चित् । कृष्णाहिरिव विज्ञेयं, तत् तृतीयं महावतम् ।।
अर्थ-किसी गांव, खेट, बन, पर्वत, घर, जंगल का मार्ग प्रादि में पड़ी हुई, भूली हुई, खोई हुई या रक्खी हुई छोटी, बड़ी बहुत वा कम दूसरे की वस्तु को कभी ग्रहण नहीं करना है। उसे काले सर्प के समान समझकर अलग हट जाना है उसको तीसरा 'अचौर्य महावत' कहते हैं ॥१६१-१६२।। प्रहो ! ये मुनयो वंद्याः, निर्लोभाः स्खलनायपि । वत्तं जातु न गृह्णन्ति, श्रामण्यायोग्यमेव यत । कथं गल्लुन्ति ते निंद्य, परं स्वं स्वभ्रकारणम् । प्रदत्तं स्वान्ययो घाँर, दुःखक्लेशा शुभादिमम् ॥
अर्थ-देखो ! जो मुनि बंदनीय हैं; जो अपने शरीर में भी लोभ या ममत्य नहीं रखते; जो मुनियों के अयोग्य पदार्थों को देने पर भी ग्रहण नहीं करते, वे भला दूसरे के द्वारा बिना दिये हुए निवनीय परधन को कैसे ग्रहण कर लेंगे; क्योंकि विना दिया हुआ दूसरेका घन, नरक का कारण है तथा अपने और दूसरों के लिये घोर दुःख, घोर क्लेश और अनेक दुर्गतियों को देनेवाला है ।।१६३-१६४।।। प्रदत्तादानदोषेण, बंधधधादयो नणाम् । तस्यन्तेऽत्रैव चौरंरच, परन नरकादयः ।।१६।।
अर्थ-मिना दिये हुए धनको ग्रहण करने के दोष से चोरों को राजा से इसी लोकमें अनेक प्रकार के वध, बंधन प्रादि के दुःख प्राप्त होते हैं तथा परलोक में नरकादि दुर्गतियां प्राप्त होती हैं ।।१६५।। क्षणमात्रं न हन्ते, संसर्ग तस्करस्य भो । यतयः स्वजना बात्र, वध बंधाविशंकया ॥१६६॥
अर्थ-हे मुनिराज ! देखो चोर के कुटुम्बो लोग भी वध, बंधन आदि की आशंका से क्षण भर भी चोर का संसर्ग नहीं चाहते ॥१६॥ प्रसादानमात्रेण, कलंक दुस्स्य भुवि । जायते प्राणसन्देहः, कुलस्म दुधियां क्षरणात् ॥१६७॥
नर्थ-बिना दिए हुए, धनको ग्रहण करने मात्र से इस संसार में कभी न