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मूलाचार प्रदीप]
( १९६ )
[ चतुर्थ अधिकार निष्ठीवन दोष का स्वरूपव्युत्सर्गालंकृतोयत्र निष्ठीवनं करोति च तथा षड्वारणं तस्यदोषो निष्ठोधनाह्वयः ।।३७।।
अर्थ---जो मनि कायोत्सर्ग करता हुप्रा भी यूकता रहता है अथवा खकारता रहता है उसके निष्ठीयन नामका दोष होता है ॥३७॥
अंगमर्श दोष का स्वरूप-- कायोत्सर्गयुतः कुर्याच्चपलत्वेन यो मुनिः । स्वशरीरपरामर्श सोंगामाख्यदोषवान् ।।३॥
अर्थ-जो मनि कायोत्सर्ग करता हुआ भी चंचल होने के कारण अपने शरीर को स्पर्श करता रहता है उसके अंगमर्श नामका दोष लगता है ।।३॥
प्रयत्न पूर्वक दोषों के त्याग की प्रेरणाएते दोषा:प्रयत्नेन द्वात्रिंशत्संष्यकाः सदा । योगशुद्धया परित्याज्याः कायोत्सर्गस्यसंयतः ॥३६॥
अर्थ-कायोत्सर्ग धारण करनेवाले मुनियोंको अपने मन-वचन-कायको शुद्धता पूर्वक प्रयत्नपूर्वक इन बसोस यौधों का त्याग कर देना चाहिये ।।३।।
निर्दोष कायोत्सर्ग का फल--- ___ यतोमीभिविनिमुक्त दोषः सर्व प्रकुर्वते । व्युत्सगं प्रकटीकृत्य ये सामथ्यं पराक्रमम् ।।४०॥ तेषां नश्यन्ति चत्वारि घातिकर्मारिग जायते । केवलावगमं सर्वगुणः सहाचिरेण भोः ॥४१॥
अर्थ-क्योंकि जो मुनि अपने पराक्रम वा सामर्थ्य को प्रगट कर इन समस्त दोषों से रहित होकर कायोत्सर्ग करते हैं उनके चारों घातिया कर्म नष्ट हो जाते हैं और शीघ्र ही अनंत चतुष्टय आदि गुणों के साथ-साथ केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। ॥४०-४१॥
कायोत्सर्ग की प्रेरणाविज्ञायेति फलं चास्य शफफा वा मंयशक्तयः । कुर्वन्तु प्रत्यहं कायोत्सर्ग सर्वार्थसिद्धये ॥४२॥
अर्थ-इस कायोत्सर्ग का ऐसा फल समझकर समर्थ मनियोंको व कम समर्थ मुनियों को भी अपने समस्त पुरुषार्थ सिद्ध करने के लिये प्रतिदिन कायोत्सर्ग करना चाहिये ॥४२॥
कायोत्सर्ग की प्रमाणिकतायतोत्र निजशक्त्या स क्रियमाणोजगहसताम् । भवत्येव न संदेहो महाकनिधनः ||४३॥