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मूलाचार प्रदीप ]
( २०१)
[ चतुर्थ अधिकार इसलिये भगवान जिनेन्द्रदेव इनको आवश्यक कहते हैं । ये सब आवश्यक सार्थक नाम को पार करते हैं और गोषितों को ध्यान उत्पन्न करनेवाले हैं । अथवा इनके द्वारा मुक्तिरूपी स्त्री अवश्य ही वशमें हो जाती है इसलिये बुद्धिमान लोग इनको आवश्यक कहते हैं । ये छहों आवश्यक महान् हैं और समस्त अर्थों को सिद्ध करनेवाले हैं । यही समझकर चतुर पुरुषों को अपने-अपने समयपर महाफल देनेवाले ये छहों आवश्यक पूर्ण रूपसे पालन करने चाहिये ॥४७-४६।।
__ योग्य समय पर किये गये आवश्यक का फलयया धाम्यानि सर्वाणि काले काले कृतानि च । महाफलप्रदानि स्युःसामप्रयात्र कुटविनाम् ।।५।। तयावश्यक कुरूनानियोग्यकालेकृतान्यपि । इन्द्राहमिंदतीर्थेशादिश्रीप्रवानि योगिनाम् ॥५१॥
अर्थ-जिसप्रकार समय-समय पर उत्पन्न किये हुये धान्य कुटुम्बी लोगों को प्रर्य सामग्री के साथ महाफल देनेवाले होते हैं उसी प्रकार योग्य समय पर किए हए समस्त प्रावश्यक भी मुनियों को इन्द्र ग्रहमिन्द्र और तीर्थकर आदि के समस्त पद और उनकी लक्ष्मी को देनेवाले होते हैं ।३५०-५१॥
असमय में आवश्यक करने से हानिप्रकाले कृतसस्यानि यथा नाभीष्टसिद्धये । कृतान्यावश्यकाम्यन्नसामप्रचादिविनातथा ॥१२॥
अर्थ-जिसप्रकार असमय पर उत्पन्न किये हुये धान्यों से अपनी इष्ट सिद्धि नहीं होती उसी प्रकार सामग्री प्रावि के बिना किए हुए आवश्यकों से भी मुनियों को इष्ट सिद्धि नहीं होती ॥१२॥
त्रियोग शुद्धि पूर्वक आवश्यक करने की प्रेरणाविज्ञायेति विचारशाः षडावश्यकमंजसा । कालेकालेप्रकुर्वन्तु त्रिशुद्धघा शिवभूतये ॥५३॥
अर्थ-यह समझकर विचारवान् पुरुषों को मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त करने के लिये मन-वचन-कायको शुद्ध कर समयानुसार यहाँ आवश्यक करने चाहिये ॥५३॥
आवश्यक की प्रमाणिकतासर्वसिद्धांतसारार्थमावाम श्रीगणाधिपः । रचितानि मुनीनां च विशुवच धर्मसिद्धये ॥५४॥
अर्थ-गणधर देवों ने धर्मकी सिद्धि के लिये और मुनियों के चारित्रको शुद्ध रखने के लिये समस्त सिद्धांत के सारभूत अर्थ को लेकर ये प्रावश्यक बतलाये हैं। ॥५४॥