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मूलाधार प्रदीप]
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[ षष्ठम अधिकार शत्रुओं का निरोध हो जाता है तथा इन सबका निरोध होने से प्रशस्त ध्यानको प्राप्ति हो जाती है, प्रशस्त ध्यान की प्राप्ति होने से पूर्ण संघर और निर्जरा से घातिया को का नाश हो जाता है तथा तालिम कमों का नाश होदे तो समास तिस गणों के साथसाथ सज्जनों को आत्मासे उत्पन्न होनेवाला केवलज्ञान प्रगट हो जाता है । तदनंतर केवलज्ञान प्रगट होने से अनंत सुख देनेवाला मोक्षरूप वधू का समागम प्राप्त हो जाता है । मोक्षको इच्छा करनेवाले मुनियोंको इसप्रकार इस मनोगुप्ति का परम उत्तम फल समझकर अपने समस्त पुरुषार्थ सिद्ध करने के लिये इस संसार में एक मनोगुप्ति का परम उत्तम फल समझकर अपने समस्त पुरुषार्थ सिद्ध करने के लिये इस संसार में एक मनोगुप्ति का हो पालन करना चाहिये । यह मनोगुप्ति अनुपम सुखोंकी खानि है, स्वर्ग मोक्षको माता है, तीर्थकर और गणधरादिकदेव भी इसका पालन करते हैं, यह समस्त कों को नाश करनेवाली है और समस्त व्रतों के आने का मार्ग है प्रतएष मुनियों को ध्यान की सिद्धि के लिये प्रयत्न पूर्वक इस मनोगुप्ति का पालन करना चाहिये । ॥२७-३२।।
बचनगुप्ति का स्वरूपवार्तालापोतराषिभ्योऽयुभेन्यो यनिवर्तनम् । वाचो विधाय सिउपर्थ स्थापनं क्रियतेन्वहम् ।।३३।। सर्वार्थसाधकेमोनेसिद्धान्ताध्ययनेऽथवा । सा वाग्गुप्तिमतासर्वा वयोव्यापारदूरगा ॥३४॥
अर्थ-मुनिराज मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपने बचन योग को अशुभ बातचौत से तथा अशुभ उत्तर से हटा कर समस्त अर्थ को सिद्ध करनेवाले मौन में, अथवा सिद्धांतों के अध्ययन में प्रतिदिन स्थापन करते हैं, उसको समस्त वचनों के व्यापार से रहित मचनगुप्ति कहते हैं ।।३३-३४॥
श्रुतज्ञान की प्राप्ति हेतु बचन गुप्ति पालने को प्रेरणायषा यथा चोगुप्तिबद्धले श्रीमती सराम् । तथा तथाशिलाविया विकषाविविधनात् ।।३।। परिमायेतिमागुप्ति विद्याथिभिः मुताप्लये । विषयासंध रक्षा सिवान्ताध्ययने न्यहम् ॥३६॥ जातवियागमनित्यं कर्तव्य मौनमंजसा । पाठनं वा स्वशिष्याणामागमस्वप्रयत्नतः ।।३७॥ क्वचिवात्रविधातव्यं सतां धर्मोपवेशनम् । अनुग्रहाय कारुण्यान्मोसमार्गप्रबुसमे ॥३८।।
अर्थ---बुद्धिमानों की वचनगुप्ति जैसी-जैसी बढ़ती जाती है वैसे ही वैसे विकथानों का त्याग होता जाता है और समस्त विद्याएं बढ़ती जाती है। यही समझ कर विद्या की इच्छा करनेवाले मुनियों को श्रुतमान प्राप्त करने के लिये अपने बचनों