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मुलाचार प्रदीप]
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[ षष्ठम अधिकार आदि अनेक उत्तम गुण बिना ही परिश्रम के अपने आप आ जाते हैं । इस विनय से उत्पन्न होनेवाली महा कौति तीनों लोकों में फैल जाती है तथा इसी विनय से सज्जनों के समस्त पदार्थों को जानने वाली सर्वोत्कृष्ट वुद्धि उत्पन्न हो जाती है । विमय धारण करनेवाले मुनियों को अपने संघ में भी मान घा पावर सत्कार मिलता है, बड़प्पन मिलता है, कीति मिलती है, सब लोक उनको स्तुति करते हैं तथा विनय से मुनियोंको शुद्ध तपश्चरण और शुद्ध रत्नत्रय की प्राप्ति होती है। विद्वान् पुरुषोंको इस विनय से हो चारों आराधनाओं की प्राप्ति होती है, मंत्री प्रमोद आदि गुण प्रगट होते हैं, क्षमा, मार्दव, प्रार्जव आदि गुण प्रगट होते हैं और मन-वचन-कायको शुद्धता प्राप्त होती है। विनय करने वालों के शत्रु भी मित्र बन जाते हैं, उपसर्ग सब उनके नष्ट हो जाते हैं
और उनको तीनों लोकों की लक्ष्मी आकर प्राप्त हो जाती है। सबसे बड़ा प्राश्चर्य तो यह है कि इस श्रेष्ठ विनयसे अपने आप खिची हुई मुक्तिरूपी स्त्री स्वयं प्राकर मुनियों को प्रालिंगन देती है । फिर भला देवांगनाओं को तो बात ही क्या है । इसप्रकार इस विनय का प्रत्यन्त श्रेष्ठ फल जानकर चतुर पुरुषोंको मोक्ष प्राप्त करने के लिये समस्त संघ को सवा बिनय करते रहना चाहिये ॥१९६१-१९६७।।
__ यावृत्य का स्वरूपप्राचार्यपाठकेषुस्थविरप्रवर्तकेषु च । शवल्या गणधरेष्वत्रगच्छे वालेतराकुले ॥१९६८।। कापिण्डाविष्ानहान्य सद्धपानवृद्धये। सुश्रूषाक्रियतेथाम्यवंशवृत्यं सवुझ्यते ।।१६६६॥
अर्थ-जो मुनि अशुभ ध्यान को नाश करने के लिये और श्रेष्ठ घ्यान को बुद्धि के लिये आचार्य उपाध्याय वृद्ध मुनि प्रवर्तक प्राचार्य और गणघर आदि महा मुनियों को तथा बाल मुनि वा वृद्ध मुनियों के कारण व्याकुल रहनेवाले गच्छ वा संघ को आहार औषधि मावि देकर तथा अन्य अनेक प्रकार से उनको सेवा सुश्रुषा करना वैयावृत्त्य कहलाता है ॥१९६८-१९६६॥
दश प्रकार के मुनि का स्वरूप और १० प्रकार की वैयावृत्य का स्वरूपषट्त्रिंशद्गुणपंचाचारान्विसाः सूरयोस ताः। पाठकाः सवपूर्वागपारगाः पाठनोयताः ॥७०॥ सर्वतोभद्रघोरावितपसाचतपस्विनः । सिद्धान्तशिक्षणोक्ताः शिष्यकाः मुक्तिमागंगाः ।।१६७१|| समाथिव्याप्तसांगा ग्लाना व्रतगुणच्युताः । समवायोगणोम्यों बालवृद्धावियोगिमाम् ॥७२।। प्राचार्यस्य च शिष्यस्यस्वाम्नायः कुलमुत्तमम् । ऋष्याविश्रमणानां निवहः संघाचतुर्विषः ॥७३॥ त्रिकालयोगपातारः साधबोमुक्तिसापकाः। प्राचार्यसाधुसंधानां प्रियोमनोज कजितः ।।१६७४।