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अर्थ- इसप्रकार यह पांच प्रकार का स्वाध्याय अपना और दूसरों का हित करनेवाला है और समस्त तत्वों के स्वरूप को दिखलाने के लिये दीपक के समान है। इसलिये चतुर पुरुषों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रतिदिन स्वाध्याय करना चाहिये । ॥१६६२।।
स्वाध्याय ही परम ताप और इसके फल का निरूपणसमस्ततपसां मध्ये स्वाध्यायेन समं तपः । परनास्ति न मूतं न भविष्यति बिदस्विचित् ॥१३॥ यतः स्थाप्यायमत्यम कुवंतां निग्रहो भवेत् । पंचाक्षारात्रिगुप्तश्वसंवरो निर्जरा शिवम् ॥४॥ स्वाध्यायेनात्र जायेत योगशुशिश्चयोगिमाम् । तथा शुक्लं महाव्यानं ध्यानादयातिविधक्षयः ।।५। तद्घातात्केवलज्ञान लोकालोकार्थवीपकम् । शक्रादिपूजनं तस्माद्गमन मुक्ति बामनि ॥१६६६।। इत्यादि परमं ज्ञात्वाफलमस्य विवोधहम् । निष्प्रमादेन कुर्वतु स्वाध्याय शिवशर्मणे ॥१६॥
___ अर्थ-समस्त तपश्चरणों में विद्वान् पुरुषों को इस स्वाध्याय के समान न तो अन्य कोई तप आज तक हुआ है, न है, और न आगे होगा। इसका भी कारण यह है कि स्वाध्याय करने वालों के पंचेन्द्रियों का निरोध प्रछी तरह होता है तथा तीनों गुप्तियों का पालन होता है और संवर, निर्जरा तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस स्वाध्याय से ही मुनियों के योगों को शुद्धि होती है, तथा महाशुक्लध्यान प्राप्त होता है, शुक्लध्यान से धातिया कर्मों का नाश होता है, घातिया कर्मोके नाश होने से लोक प्रलोक सबको प्रगट करनेवाला केवलज्ञान प्रगट होता है, केवलज्ञान के होने से इन्द्र भी प्राकर पूजा करता है तथा अंत में मोल की प्राप्ति होती है । इसप्रकार इस स्वाध्याप का सर्वोत्कृष्ट फल समझकर विद्वान् पुरुषों को मोक्षके सुख प्राप्त करने के लिये प्रमाद छोड़कर प्रतिदिन स्वाध्याय करना चाहिये ।।१९६३-१९६७॥
उत्तम कायोत्सर्ग का स्वरूपबाह्याम्यन्तरसंगाश्च स्यवस्थामा वपुषासताम् । ध्यानपूर्वास्थितिर्मान कायोत्सर्गः स उत्तमः ।। प्रावश्यकाधिकारेप्राक् तस्य लक्षणमंजसा । गुणदोषादिकं प्रोक्त उपासेन नव वेधुना ॥१९६६1
अर्थ-बाह्य और प्राभ्यंतर परिग्रहों का त्याग कर तथा शरीर का ममत्व छोड़कर सज्जन पुरुष जो ध्यान पूर्णक स्थिर विराजमान होते हैं उसको उत्तम कायोरसगं कहते हैं । पाषश्यकों के अधिकार में पहले विस्तार के साथ इसका लक्षण तथा इसके गुण दोष आदि सब कह चुके हैं। इसलिये अब यहाँपर नहीं कहते हैं ॥१९९८. १६६६॥