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मूलाचार प्रदीप ]
( ३०७ )
[ षष्ठम अधिकार
पठन-पाठन करते हैं उसको गुणों को खानि स्वाध्याय कहते हैं। वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा श्रेष्ठ आम्नाय और धर्मोपदेश ये पांच स्वाध्याय के भेद हैं ।। १६६५ - १६८६ ।।
याचना नामक स्वाध्याय का स्वरूप
अंगपूर्वादिशास्त्राणां यथातथ्येन मुक्तये | व्याख्यानं क्रियतेयस्मयस्सल वाचनात्र सा ।। १६८७ ।।
अर्थ- जो मुनि मोक्ष प्राप्त करने के लिये सज्जनों को अंग पूर्ण आवि शास्त्र का यथार्थ व्याख्यान करते हैं उसको वाचना नामका स्वाध्याय कहते हैं ।। १६८७।। पृच्छना नामक स्वाध्याय का स्वरूप
सन्देह हानयेन्येषां पाश्र्व प्रश्न विधोयते । सिद्धातार्थमहागदं भूयते पृच्छना सा ॥ १६६॥
अर्थ-- श्रपना सन्देह दूर करने के लिये किसी अन्य के पास जाकर प्रश्न पूछना अथवा महागूढ़ सिद्धांतशास्त्रों के अर्थ को सुनना पृच्छना नामका स्वाध्याय है ।। १६८ ।।
श्रनुप्रेक्षा नामक स्वाध्याय का स्वरूप
सप्लाय पडसादश्येनाग्रापित चेतसा । अभ्यासोधीतशास्त्राणां योनुप्रेक्षात्रसोत्तमा ।।१६८९ ।। अर्थ -- तपाये हुए लोहे के गोले के समान एकाग्रचित्तसे पढ़े हुए शास्त्रों का बार-बार अभ्यास करना उत्तम अनुप्रेक्षा नामका स्वाध्याय कहलाता है ।। १६८९ || आम्नाय नामक स्वाध्याय का स्वरूप
वितमात्रादिच्युत दोषातिगं च यत् । परिवर्तनमस्यस्तागमस्याम्नाय एव सः || १६६० ॥
अर्थ - पढ़े हुए शास्त्रों का बार-बार पाठ करना और ऐसा पाठ करना जो न तो धीरे-धीरे हो, न जल्दी हो और न अक्षर मात्रा आदि से रहित हो ऐसे पाठ करने की आम्नाय नामका स्वाध्याय कहते हैं ।। १६६०।।
धर्मोपदेश नामक स्वाध्याय का स्वरूप
ख्यातिपूजाविलाभाबीन् बिना तोयंकृतसिताम् । तत्कयास्यापनं यच्च धर्मोपदेश एव सः ॥ ६१ ॥ अर्थ-अपनी कीर्ति बड़प्पन वा लाभ आदि की इच्छा के बिना तोर्थंकर आदि सज्जन पुरुषोंको कथा का कहना धर्मोपवेश नामका स्वाध्याय कहलाता है ॥१६६१॥ ५ प्रकार की स्वाध्याय करने की प्रेरणाइत्येवं पंजा दक्ष स्वाध्यायो विश्वदीपकः । कर्तग्या प्रत्यहं सिद्धच स्वान्येषां हितकारकः ।। ६२ ।।