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मूला चार प्रदीप
[ षष्ठम अधिकार
पठन-पाठन करते हैं उसको गुणों की खानि स्वाध्याय कहते हैं। वाचना, पृष्छना, अनुप्रेक्षा, श्रेष्ठ आम्नाय और धर्मोपदेश ये पांच स्वाध्याय के भेव हैं ।।१९८५-१९१६॥
वाचना नामक स्वाध्याय का स्वरूपअंगपूर्वादिशास्त्राणां यथातथ्येन मुक्तये । ध्याण्यानं क्रियतेयस्यमरसतां वाचमात्र सा ||१९८७॥
अर्थ- जो मुनि मोक्ष प्राप्त करने के लिये सज्जनों को अंग पूर्व आदि शास्त्रों का यथार्थ व्याख्यान करते हैं उसको वाचना नामका स्वाध्याय कहते है ।।१६५७॥
पृच्छना नामक स्वाध्याय का स्वरूपसन्देह हानयेन्येषां पावें प्रश्न विधीयते । सिद्धासार्थमहागू भूयते पृष्छमात्र सा ॥१९८८॥
अर्थ-अपना सन्देह दूर करने के लिये किसी अन्य के पास जाकर प्रश्न पूछना अथवा महागूढ़ सिद्धांतशास्त्रों के अर्थ को सुनना पृच्छना नामका स्वाध्याय है ॥१६ ॥
मक स्वाध्याय का स्वरूपसप्तायः पिडसादरमेनकानापित चेतसा । अभ्यासोधीतशास्त्राणां योनुप्रेक्षात्रसोतमा १९८९॥
अर्थ-तपाये हुए लोहे के गोले के समान एकाग्रचित्तसे पड़े हए शास्त्रों का बार-बार अभ्यास करना उत्तम अनुप्रेक्षा नामका स्वाध्याय कहलाता है ॥१९॥
प्राम्नाय नामक स्वाध्याय का स्वरूपतलवितमालाविष्युतवीषातिगं च यत् । परिवर्तनमम्बस्तागमस्याम्नाय एव सः ॥१६॥
अर्थ-पढ़े हुए शास्त्रों का बार-बार पाठ करना और ऐसा पाठ करना जो न सो धीरे-धीरे हो, न जल्दी हो और न अक्षर माना प्रादि से रहित हो ऐसे पाठ करने को आम्नाय नामका स्वाध्याय कहते हैं ॥१९६०॥
धर्मोपदेश नामक स्वाध्याय का स्वरूप-- ख्यातिपूजादिलाभादीन् विना तीर्थकृतांस्ताम् । सरकथाख्यापनं यच्छ धर्मोपदेश एव सः ।।१।।
अर्थ-अपनो कीति बड़प्पन वा लाभ आदि की इच्छाके बिना तीर्थंकर आदि सज्जन पुरुषोंको कमा का कहना धर्मोपदेश नामका स्वाध्याय कहलाता है ।।१९६१॥
५ प्रकार की स्वाध्याय करने की प्रेरणाइत्येवं पंचमा बक्षी स्वाध्यायोविश्वदीपकः । कर्तण्या प्रत्यहं सिव स्वान्येषां हितकारकः ॥१२॥
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