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मूलाधार प्रदीप ]
( ३०५ )
[ षष्ठम अधिकार
श्रमीषां दशमैदानां रोगक्लेशादिकारणे । संजाते सति कर्तव्यं वैयावृत्यं वशात्मकम् ।।१९७५ ।।
अर्थ - जो आचायों के छत्तीस गुर और पंचाचारों का पालन करते हैं उनको उत्कृष्ट प्राचार्य कहते हैं, जो ग्यारह श्रंग और चौदह पूर्व के पारगामी हैं तथा शिष्यों के पढ़ाने में सदा तत्पर रहते हैं उनको उपाध्याय कहते हैं । जो सर्वतोभद्र आदि घोर तपश्चरण करते हैं उनको तपस्वी कहते हैं । जो सिद्धांतशास्त्रोंके पढ़ने में तत्पर हैं और मोक्षमार्ग में लगे हुए हैं उनको शंक्य कहते हैं। जिनका शरीर किसी रोग से रोगी हो रहा है तथा जो अपने व्रत रूपों गुणों से च्युत नहीं हैं उनको ग्लान कहते हैं । बाल और बुद्ध मुनियों के पूज्य समुदाय को गरा कहते हैं। आचार्यों के शिष्यों की परम्परा को उत्तम कुल कहते हैं। ऋषि मुनि यति और अनगार इन चारों प्रकार के मुनियोंके समुदाय को संघ कहते हैं। जो मुनि त्रिकाल योग धारण करते हैं और मोक्षकी सिद्धि में लगे रहते हैं उनको साधु कहते हैं । जो श्राचार्य साधु और संघ को प्रिय हों उनको उत्तम मनोज्ञ कहते हैं । ये वश प्रकार के मुनि होते हैं । इनके लिये रोग क्लेश आदि का कारण आ जानेपर उन सबका वैयावृत्य करना सेवा सुश्रूषा करना दश प्रकार का यावृत्य कहलाता है ।। १६७० १६७५ ।।
अनेक प्रकार की वैयावृत्य करने की प्रेरणा
पावाविमर्वनेर्वः सुश्रूषाकरणाविभिः । धर्मोपवेशनंश्चान्यविण्मूत्राद्यप कवंरांः ।। १९७६ ।। दुर्माश्रमखाना चोरपारिदुर्जनः । सिंहादिजोपसर्गपीडितानां सुयोगिनाम् ।।१६७७ ।। संग्रहानुग्रहैदशिकणैः पालनादिभिः । वैयावृत्यं विघातव्यं धमंबुद्धधासमाधये ॥१६७८ ॥
अर्थ- जो मुनि कंकरीले वा ऊंचे नीचे मार्ग में चलने के कारण खेद खिन्न हो रहे हैं अथथा जो किसी चोर वा राजा वा शत्रु वा दुष्ट अथवा सिंह आदि के उपसर्ग से अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं, ऐसे मुनियों के पांव बाजना सेवा सुश्रूषा करना उनको धर्मोपदेश देना उनका भिष्ठा, सूत्र, कफ प्रावि हटाना उनको अपने पास रखना उनका अनुग्रह करना, उनकी रक्षा करना, आवश्यकतानुसार उनको उपकरण देना, उनके निर्वाह का प्रबन्ध कर देना आदि अनेक प्रकार का वैयावृत्य चतुर पुरुषों को ध्यानकी प्राप्ति के लिये केवल धर्म बुद्धि से सदा करते रहना चाहिये ।।१६७६-१६७८॥
पुनः वैयावृत्य का स्वरूप
तपोदुग्तान चारित्र ध्यानाध्ययनकर्मसु । पुस्तकावि सुदानंश्चव्या स्थाषर्मोपदेशनः ॥ १६७६ ॥ यत्साह्यकरणयुक्त्यै साथमा विधीयते । मिराकक्षितथा सर्व वैषामृत्यं तदुच्यते ॥ १६८० ॥