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मूलाचार प्रदीप
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[ षष्ठम अधिकार अर्थ--इसी प्रकार मुनियों को जान वा धर्माविक का उपदेश देकर वा जिन मार्ग में अमराग कर हाजिरा और. आरमों का मिल भी यथायोग्य रीति से करते रहना चाहिये ॥१९५७॥
चतुर्सघ का यथायोग्य विनय की प्रेरणा.... सर्वथा विनयो वक्षः कर्तव्यः कार्यसाधकः । चातुर्षणस्वसंधानांयथायोग्यो हिसंकरः ॥१६५८।।
अर्थ-चतुर पुरुषों को चारों प्रकार के.संघ का विनय यथायोग्य रीति से सर्वथा करते रहना चाहिये । क्योंकि यह विनय समस्त कार्यों को सिद्ध करनेवाला है और सबका हित करनेवाला है ।।१६५८॥
_ विनय रहित जीव के शिक्षा निरर्थक हैयतो विनय होनाना शिक्षानिरथिकाखिला । श्रुताविपठनं व्यर्थमकोतिर्वर्वतेतराम ||१६५En
अर्थ-इसका भी कारण यह है कि जो पुरुष विनय रहित हैं उनकी समस्त शिक्षा निरर्थक समझनी चाहिये तथा उनका शास्त्राविक का पढ़ना भी व्यर्थ समझना चाहिये । इसके सिवाय अविनयी पुरुषों की अपकीति सवा बढ़ती रहती है ।।१९५६॥
बिनय रूपी जहाजपर बैठकर ही आगम रूपी महासागर को पार करते हैंमहाविन्यपोलेनगम्भौरमागमार्णवम् । भवाम्बुषि च बुस्तीरं तरन्तियमिनोऽचिरात् ।।१९६०॥
अर्थ-मुनिलोग इस महा विनय रूपी जहाजपर बैठकर अत्यन्त गम्भीर ऐसे आगमरूपी महासागर को बहुत शीन पार कर लेते हैं तथा अत्यन्त कठिन ऐसे संसाररूपी समुद्र को भी बहुत शीघ्र पार कर लेते हैं ॥१९६०॥
विनय से अनेक गुणों की प्राप्ति होती हैविद्याविवेक कोपाल्यशमायाः प्रवरा गुणाः । विनायासेम जायन्ते विश्व विनयशालिनाम् ॥११॥ दिनयोत्था महाकोतिःप्रसर्पति जगात्रयम् । उत्पद्यते पराबुद्धिः सतां विश्वार्थदीपिका ॥१९६२।। स्वसंघे मान्यता पूजा ख्याति च स्तवनाविकान् । तपोरत्नत्रयं शुद्ध लभन्ते विनयांकिताः ॥३॥ चतुराराधनामंत्री शान्त्याजवादिलक्षरणान् । मनोवाक्कायसंशुद्धीः श्रयन्ति विनयाबुधाः ॥६४।। विनयाचारिणां नूनं शत्रुर्गच्छत्सुमित्रताम् । उपसर्गाविलायन्तेदोकन्तेविजच्छ्यिः ॥१९६५।। अहोसदिनयाकृष्टा मुक्तिस्त्री योगिनांस्वयम् । एस्यात्रालिंगनंदत्ते का कयामरयोषिताम् ॥६६॥ इत्यादिप्रवरं नात्या विनयस्य फलं विदः । कुर्वन्तुसवंसंघामां मुक्तये विनयं सदा ॥१९६७।।
अर्थ-विनय धारण करनेवाले पुरुषों के विधा विवेक, कुशलता और उपशम