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मूलाचार प्रदीप ]
( ३०२)
[षष्ठम अधिकार वाचिका धिनया एते चतुभेवा वचोभवाः । निरवधाविधातारः स्वान्येषां धर्ममूजितम् ॥१९५२॥
___ अर्थ-हिलरूप भाषण अर्थात् धर्मरूप वचन कहना, मित भाषण अर्थात् थोड़े अक्षरों में बहुत सा अर्थ हो ऐसे वचन कहना, परिमित भाषण अर्थात् कारसा सहित वचन कहना और सूत्रानुवाची भाषण अथात् श्राम के अधिरथम कहना यह चार प्रकार की वाचनिक विनय है । जो मुनि इन चारों प्रकार की विनयों को निरवच (पापरहित) रोति से पालन करता है वह अपने और दूसरों के श्रेष्ठ धर्म को बढ़ाता है ॥१९५१-१९५२॥
२ प्रकार के मानसिक विनय का स्वरूपपापादानमनोरोषो धर्मध्यानप्रवर्तनम् । हवेति बिनयो ने द्विधामानसिकोऽमलः ॥१६५३।।
अर्थ-जिस मनसे पाप कर्मों का प्रास्रव होता है ऐसे मन को रोकना और अपने मनको धर्मध्यान में लगाना दो प्रकार की मानसिक विनय है । यह मानसिक विमय अत्यंत निर्मल है ॥१९५३॥
प्रणाम आदि के द्वारा अपने से बड़े का विनय करना चाहिये--- बीक्षाषिकयतीनां च तपोषिकमहात्मनाम् । भ्रताधिकमुनीनां च सद्गुणाधिकयोगिनाम् ॥५४॥ वोक्षाशिक्षाश्रुतज्ञानगुरूणां यत्नतोऽनिगम् । कार्यः सर्वः प्रणामाय : विनयोत्रषसंयसः ।।१६५५।
अर्थ-जो मुनि अपने से अधिक कालके दीक्षित है, ओ महात्मा बहुत अधिक तपस्थी हैं, जो मुनि अधिक श्रुतवान को धारण करते हैं, जो मुनि अधिक गुणों को धारण करते हैं, जो दीक्षा गुरु हैं, शिक्षा के गुरु हैं, वा श्रुतज्ञान के मुरु हैं, उनके लिये प्रणाम आदि करके मुनियों को प्रतिदिन प्रयत्नपूर्वक सब तरह की विनय करनी चाहिये ॥१९५४-१६५५।।
अपने से छोटे को भी यथायोग्य बिनय करना चाहिएमालधुतपोहोनम्वल्पश्रुतापयोगिनाम् । यथायोग्य सदा कार्यो विनयो मुनिपुंगवः ।।१६५६॥
अर्थ-जो मुनि दीक्षा से छोटे हैं, जो तपश्चरण में भी अपने से होन हैं और जो थोड़े से श्रुतझानको धारण करते हैं ऐसे मुनियों के लिये भी श्रेष्ठ मुनियों को यथा. योग्य रीति से सदा विनय करते रहना चाहिये ॥१९५६॥
मायिका और श्रावक का भी यथायोग्य विनय करने चाहियेमार्मिकाधाविकावीनां ज्ञान धर्मादिदेशमैः । जिनमार्गानुरागेण यथार्ह कार्य एव सः ॥१९॥