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मूलाचार प्रदीप ]
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[ षष्ठम अधिकार
देना, ज्ञान और शौचके उपकरण समर्पण करना, सूने मकान वा गुफाविकों को ढूंढकर बतलाना, गुरु के शरीर को वा उनके चरणों को स्पर्श करना वा हाथों से दबाना, उनका काम करना उनके लिये संस्तर बिछाना, रात के समय प्रतिदिन ज्ञान के उपकरणों का प्रतिलेखन करना (पीछी से झाड़कर शुद्ध करना) तथा अपने शरीर से इसी प्रकार के गुरु वा प्राचार्य के अन्य उपकार करना यथायोग्य रीति से उपकार करना शारीरिक विनय कहलाती है ।। १६३२- १६३७।।
वावनिक विनय का स्वरूप
भगवत्पूज्यपाद भट्टारकादिभिः । नामभिः प्रबरं पूज्य वचनं मधुरं वचः ।।११३८ ।। हिततथ्यमितादीनां यचसां भाषणं गिरा । जिनसूत्रानुसारेण भाषणं पापद्दूरगम् ।।१६३६ ।। उपशाम्त वचोवाच्यम गृहस्थवचः शुभम् । प्रकर्कशं वचः सारं सुखस्पृष्टम निष्ठुरम ।।१६४० ।। इत्यादिनियत यते वचनबरम् । गुरोरन्ते स सर्वोपि वाचिको विनयो महान् ।। १६४१ ।।
अर्थ - गुरुके समीप जाकर पूज्य और मधुर वचनों से प्राचार्य भगवान् पूज्यपाद भट्टारक आदि उत्तम नामों से गुरु को सम्बोधन करना, वचन से सदा हित-मित तथा यथार्थ भाषण करना, सदा जैन शास्त्रों के अनुसार भाषण करना, पाप रोहित वचन कहना, शांत वचन कहना, मुनियों के योग्य शुभ वचन कहना, सवा ऐसे वचन कहना जो कर्कश न हों सारभूत हों स्पष्ट हों कठिन न हों उत्तम और अनिद्य हों । इसप्रकार गुरुके समीप वचन कहना सर्वोत्कृष्ट वाचनिक विनय कहलाता है ।।१६३८
१६४१॥
मानसिक विनय का स्वरूप
दुष्कर्मागमनद्वारसम्मुखं स्वसुखावृतम् । दुर्ष्यानद्वेषरागादिलीनं चिन्ताशला कुलम् ॥१६४२॥ स्थगत्वा स्वपरिणामसुतत्त्ववंराग्यषासितम् । सवर्थघमंस ड्रावागमचिन्तादितत्परम् ॥। १९४३ ।। स्वान्येषां हितकृच्छुद्ध घायंते यनिजं मनः । गुरोः पाश्र्व स विश्वोमानसिको विनयो वरः ॥ ४४ ॥ अर्थ – जो परिणाम प्रशुभ कर्मों के आने के काररण हों, अपने सुखको चाहने वाले हों, अशुभध्यान वा रागद्व ेष में लीन हों और संकड़ों चिताओं से व्याकुल हों ऐसे परिणामों को छोड़कर गुरु के समीप बैठना तथा अपने मन में श्रेष्ठ तत्त्व और वैराग्य की वासना रखना, श्रेष्ठ अर्थ, श्रेष्ठ धर्म और श्रेष्ठ भावनाओं के चितवन में ही अपने मन को सवा लगाये रखना, अपने मन को सदा अपने और दूसरे के हित में लगाना, तथा अपने मन को अत्यंत शुद्ध रखना, इसप्रकार गुरु के समीप अपने मन की शुद्धता