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मूलाचार प्रदीप ]
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[ षष्ठम अधिकार अ-पातापन धादि श्रेष्ठ मोगों में सर्वोत्कृष्ट उत्तरगुणों में तथा बारह प्रकार के घोर दुर्धर और कठिन सपश्चरणमें श्रद्धा करना, उत्साह धारण करना, अतुराग करना तथा बहुत बड़ी प्राकांक्षा करना, महातपस्वियों को प्रणाम करना, उनकी स्तुलि करना, छहों आवश्यकों को पालन करना, हृदय के समस्त क्लेशों का त्याग कर रेमा, अनेक प्रकार के तपश्चरण पालन करने के लिये अपनी शक्ति को प्रगट करना, पांचों इन्द्रियों को जीतना तथा इसी प्रकार सपश्चरण के श्रेष्ठ गुणों की प्रशंसा और तपश्चरण से उत्पन्न हुई ऋद्धियों को प्रशंसा करना तपोविनय कहलाती है ॥१९२६१६२६॥
उपचार विनय के भेद-- सत्कायवाग्मनोमवैपचारो जिनागमे । विनयविविधः प्रोक्तः कायाक्तियुनिकः ॥१३॥ स प्रत्यक्षपरोक्षाभ्यां प्रत्येकं द्विविधः स्मृतः । इत्येतेषट्कारा उपचार बिनये मताः ।।१९३१॥
अर्थ-जैन शास्त्रों में मन-वचन-कायको शुद्ध करनेवाला उपचार विनय तीन प्रकार का बतलाया है, काय से होनेवाला विनय वचन से होनेवाला विनय और मनसे होनेवाला विनय । यह मन-वचन-कायसे होनेवाला तीनों प्रकार का विनय प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो दो प्रकार है । इसप्रकार उपधारधिनय छह प्रकार का हो जाता है ।। १९३०-१९३१॥
शारीरिक विनय का स्वरूपअभ्युत्पानं क्रियाकर्म मुवाभक्तित्रयांकितम् । प्ररणामः शिरसा भाले स्वांजलीकरणं सदा ।।३२॥
गुरोरागच्छसश्चाभिमुखयानां प्रगच्छतः । अमुबजनमत्यर्थ भक्तिरागप्रकारानम् ।।१९३३॥ नीचं स्थानं कियनीचं गमनं शयनासनम् । पासमझामशौचोपकरणाविसमपणम् ॥१६३४।। शून्यागारगुहावीनामनिवस्य च निवेदनम् । गुरुकायक्रमावोनो स्पर्शनं मर्वन करैः ।।१६३५।। प्रादेशकरणं संस्तराविप्रसारणं निशि । ज्ञानोपकरणादीनां प्रतिलेखनमन्वहम् ॥१६३६॥ इत्यायन्योपयायोग्यउपकारो विधीयते । कायेन सवगुरो यः स विनयः कायिफोखिलः ॥१९३७॥
अर्थ-गुरु को देखकर उठ कर खड़े होना, प्रसन्नता पूर्वक श्रुतभक्ति प्रावि तीनों भक्तियों को पढ़कर क्रियाकर्म वा बंदना करना, उनको प्रणाम करना, दोनों हाय जोड़कर मस्तक पर रखना, गुरु के आनेपर उनके सामने जाना, गुरु के गमन करने पर उनके पीछे चलना, उनके प्रति अत्यन्त भक्ति और अनुराग प्रगट करना, नीचा स्पान हो तो कितना नीचा है यह बताना, गमन शयन आसन श्रादि का ज्ञान कराना, प्रासन