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मूलाचार प्रदीप ]
( २६७ )
[ षष्ठम अधिकार
समय में अपने बूतोंको शुद्ध करने के लिये प्रायश्चित्त धारण करना चाहिये ।।१६१०॥ विनय का स्वरूप और उसके भेद
कषायैन्द्रिय चौराणां शवस्था विजयं वसात् । विनयो वा सतानीचैव लिरत्नत्रयस्य यः ।। १९११ ।। aar: प्रोक्तोनियोऽनिष्टघात कः । विश्वविद्याकरीभूतः पंचषागुणसागरः ॥१६१२ ॥
ज्ञानचारित्रतपसां विनयोमहान् । उपचाराभिद्यश्चेति विनयः पंचधा मतः ॥ ११३ ॥
अर्थ- कषाय और इन्द्रिय रूपी चोरों को अपनी शक्ति के अनुसार बलपूर्वक जोतना विनय है । अथवा सज्जनों के प्रति नम्रता धारण करना वा रत्ननयकी विनय करना रत्नत्रय को धारण करनेवालों को विनय करना सज्जन पुरुषों के द्वारा विनय कहलाता है । यह विनय समस्त अनिष्टों को दूर करनेवाला है, समस्त विद्यार्थीों को खानि है और गुणों का समुद्र है। ऐसा यह विनय तप पांच प्रकार का है। दर्शनविनय, ज्ञानविनय, सारिश्रविनय, तपविनय और सर्वोत्कृष्ट उपचारविनय इसप्रकार विनय के पांच भेद हैं ।। १६११-१६१३॥
दर्शन विनय का स्वरूप उसका फल ---
ये पदार्थाः जनैः प्रोक्तास्सच्या स एव नान्यथा । वीतरागाश्वसर्वज्ञा मतो नासत्यवादिनः ॥ १४ ॥ इतियुक्तिविचारार्थ तस्मादी निएजयोऽचलः । क्रियते यो जिले जैनागमे ढर्मयोगिषु ॥ ११५ ॥ मिः शकितादिसर्वेषा मंगानां यच्चधारणम् । शंकारि त्यजनं कृत्स्नं सूक्ष्मतत्त्व विचारणे ।। १२१६।। भक्ति तान्मुनिमिषु । सम्यग्दुष्टजनादौ च रुचिसुं पिथेवर्षे ।। १९१७ ।। इत्यादि यच्छुभाषारमपरं वा विधोयते । विनम्रो दर्शनाव्यः स सर्वोगुणाकरोत् । १९१८ ।।
अर्थ - भगवान जिनेन्द्रदेव ने जो तत्त्व बतलाये हैं तथा जिसप्रकार बतलाये हैं वे ही तत्त्व यथार्थ तत्व हैं तथा वे उसी प्रकार हैं अन्यथा नहीं हैं। क्योंकि भगवान जिनेन्द्रदेव वीतराग और सर्वज्ञ हैं इसलिये वे मसत्यवादी कभी नहीं हो सकते । इस प्रकार युक्ति और विचार पूर्वक तत्वादिकों में अचल भद्धान करना, समस्त जैन शास्त्रों में श्रद्धान करना, देव, धर्म, गुरु में अचल श्रद्धान करना, निःशंकित भावि समस्त अंगों का पालन करना, सूक्ष्म तत्वोंका विचार करते समय समस्त शंकादिक दोषों का त्याग कर देना, देवशास्त्र गुरु और धर्म में अत्यंत बुढ़ भक्ति धारण करना, सम्यग्वृष्टि पुरुषों में, मोक्षके मार्ग में तथा जिनधर्म में गाढ़ रुचि वा प्रेम धारण करना तथा इसी प्रकार के और भी जो शुभावार धारण करना है उसको वर्षानविनय कहते हैं । यह दर्शनविनय समस्त गुणोंकी खान है और समस्त पापों को नाश करनेवाला है ।। १६१४-१६१८ ।।