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मूलाचार प्रदीप ]
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[ षष्ठम अधिकार लिया है वह यदि अपना सम्यग्दर्शन शुद्ध करने के लिये तत्वों में वा देव शास्त्र गुरु में श्रद्धान कर लेता है उसको उत्तम श्रद्धान नामका प्रायश्चित्त कहते हैं ॥१९०४।।
१० प्रकार के प्रायश्चित्त पालन करने को प्रेरणाएतद्दश विघंप्रायश्चित्तं तद्वतशुद्धये । युवस्या कालानुसारेण कसंव्यं मुनिभिः सदा ॥१६०५।।
अर्थ-श्रेष्ठ व्रतों को शुद्ध करने के लिये यह दश प्रकार का प्रायश्चित्त मतलाया है मुनियों को अपने-अपने समय के अनुसार युक्ति पूर्वक इनका पालन करना चाहिये ।।१६०५॥
प्रायश्चित्त नहीं लेने से हानि का वर्णन दृष्टान्त पूर्वकयो महत्त्वतपो मरवा प्रायश्चित्तं करोति न प्रतादिदोषशुद्धचर्य शठात्मा गविताशयः ॥१९०६॥ तस्पसवंतपोधत्तं तद्दोषो नाशयेश्रुतम् । सहाखिलगुणोघः कुथितताम्बूलपत्रवत् ।। १९०७।।
अर्थ-जो मूर्ख अभिमानी मुनि अपने तपश्चरणको महा तपश्चरण समझकर प्रताविक के दोषों को शुद्ध करने के लिये प्रायश्चित्त नहीं करता उसके समस्त व्रतों को तथा समस्त तपश्चरण को वे दोष शीघ्र ही नष्ट कर देते हैं तथा उन व्रत और तपके नाश के साथ-साथ उसके समस्त गुण नष्ट हो जाते हैं। जैसे कि सड़ा हुआ एक पान अन्य सब पानों को सड़ा देता है । उसीप्रकार एक ही दोष से सब व्रत तप गुण नष्ट हो जाते हैं ॥१६०६-१६०७॥
प्रायश्चित्त पालन करने का फलप्रायश्चित्तेननिःशल्यंमनोभवति निर्मलाः । दृशानायागुणोधाः स्युश्चारित्रं शशिनिमलम् ।। संघमाग्यमभीतिः स्थानिः शल्यंमरणोत्तमम् । इत्याया बहवोन्मेत्र जायन्ते सब गुणाः सताम् ।।
अर्थ- इस प्रायश्चित्त को धारण करने से मन शल्य रहित हो जाता है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानाविक गुणों के समूह सब निर्मल हो जाते है, चारित्र चन्द्रमा के समान निर्मल हो जाता है, ये मुनि संघ में माननीय माने जाते हैं, उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं रहता और उनका मरण शल्प रहित सर्वोत्तम होता है । इसप्रकार प्रायश्चित्त धारण करने से सज्जनों को बहुत से गुण प्रगट हो जाते हैं ।।१६०८-१६०६॥
पुनः प्रायश्चित्त धारण करने की प्रेरणाविज्ञायेति यदा कश्विदोषः उत्पद्यते व्रते । प्रायश्चित्तं तवैवात्र कर्तव्य तढिशुद्धये ।।१६१०॥
अर्थ-यही समझकर मुनियोंको अपने व्रतोंमें जब कभी दोष लग जाय उसी