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मूलाचार प्रदीप ]
( २६५)
[ षष्ठम मधिकार ।।१८९४-१८९६॥
पारंचिक प्रायश्चित्त कहने की प्रतिज्ञापरिहारस्य मेदोयं द्विधाप्रोक्तो जिनागमात् । पारंचिकमितो वक्ष्ये प्रायश्चित्तं सु दुष्करम् ।।६७॥
अर्थ-इसप्रकार जैन शास्त्रोंके अनुसार परिहार प्रायश्चित्तके दोनों भेद बतलाये । अब आगे अत्यंत कठिन ऐसे पारंचिक नामके प्रायश्चित्तको कहते हैं ॥१८६७।।
पारंचिक अनुपस्थान प्रायश्चित्त का स्वरूपतोकृद्गणमृसंघजिनसूत्रादिमिणाम् । करोत्यासादनं राणाननुमत्या दवाति यः ॥१८६८॥ मिनमुद्राममात्यादीनां भजेव्राजयोषितः । इत्यायन्य दुराचारः कुर्याजमस्य दूषणम् ||१८६६॥ सस्य पारंचिकप्रायश्चिसं भवति निश्चितम् । भातुवर्णस्वसंघस्थाः संभूयश्रमणा भुवि ।।१६००। एषोऽबंधोमहापापी बाह्यः श्रीजिनशासनात् । घोषयित्वेतिदत्त्वानुपस्थापन सुदुष्करम् ।।१६०१।। प्रायश्चित्तं स्वदेशातं निर्घाटयन्तिदोषिणाम् । स्वधर्मरहिते क्षेत्रे सोपिगत्वा महावल: ।।१६०२।। दृढसंहननो धीरः प्रागुक्त कमलाचरेत् । प्रवरा गुरुणा सर्व प्रायश्चितं विशुद्धिदम् ।। १६०३।।
प्रध-जो भनि तीर्थकर, गणधर, संघ, जिनसत्रको निदा करता है धर्मात्माओं को निवा करता है अथवा बिना राजा की सम्मति के उसके मंत्री आदि को जिनदीक्षा दे देता है अथवा राजघराने की स्त्रियों को सेवन करता है अथवा और भी ऐसे ही ऐसे दुराचार कर जो जिनधर्मको दूषित करता है उसके लिये प्राचार्यों ने पारंचिक नामका प्रायश्चित्त निश्चित किया है । उस प्रायश्चित्त को देते समय अपने संघके चारों प्रकार के मुनि इकट्टे होते हैं और मिलकर घोषणा करते हैं कि यह मुनि महा पापी है, इसलिये अवंदनीय है और श्री जिनशासन से बाहर है। तदनंतर वे प्राचार्य उसको अत्यंत कठिन अनुपस्थापन नामका प्रायश्चित्त देते हैं । तथा उस अपराधो मुनि को वे आचार्य अपने देश से निकाल देते हैं। मजबूत संहनन को धारण करनेवाला धीर वीर महाबलवान् वह मुनि भी जिस देश में जिनधर्म न हो उस क्षेत्र में जाकर गुरु के दिए हुए समस्त दोषों को शुद्ध करनेवाले पूर्ण प्रायश्चित्त को अनुक्रम से पालन करता है । इसको पारंचिक अनुस्थापन प्रायश्चित्त कहते हैं ॥१८६८-१९०३॥
श्रद्धान नामक प्रायश्चित्त का स्वरूपमियादृष्टयुपदेशगाचं मिथ्यात्वं च गतस्य या। वृग्विशुध चिस्तस्वादोश्रद्धानं तव तम् ।।
अर्थ-मिथ्याष्टियों के उपदेशाविक से जिसने मिथ्यात्व को धारण कर