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मूलाचार प्रदीप
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[ षष्टम अधिकार घवापरामुखांपिच्छिका चरेत्पारणं सदा । पंचपंचोपदासजघन्येनोत्कृष्टतो मुदा ।।१८६१॥ षण्मासमध्यमः शक्त्या बहुभेदमहाबलः । प्रायश्चित्तं करोत्येवं विषवर्षान्तमङ्ग तम् ॥१८६२॥
अर्थ- इस स्वगण अनुस्थापन प्रायश्चित्त को धारण करनेवाला मुनि शिष्यों के आश्रम से बत्तीस दंड दूर रहता है, जो अन्य मुनि दीक्षासे छोटे हैं उनको भी वंदना करता है परन्तु वे छोटे मुनि भी उसको प्रतिवंदना नहीं करते। वह मुनि मौन धारण करता है अन्य मुनियों के साथ गुरु के सामने मौन धारण करता हुअा ही समस्त दोषों को आलोचना करता है और अपनी पोछोको उलटी रखता है । कम से कम पांच-पांच उपवास करके पारणा करता है तथा अधिक से अधिक छह महीने का उपवास कर पारणा करता है और मध्यम वृति से छह दिन, पन्द्रह दिन, एक महीना आदि का उपवास कर पारणा करता है । इसप्रकार बह शक्तिशाली मुनि अपनी शक्तिके अनुसार अनेक प्रकार के उपवास करता हुआ पारणा करता है और इसप्रकार के अद्भत प्रायश्चित्तको वह बारह वर्ष तक करता है ॥१८८६-१८१२॥
परगण अनुस्थापन प्रायश्चित्त किसे देवें-- स एष दर्पतो वोवान्प्रागुतान् नाचरेद्यदि । भयेत्परगणोपायापमं बोध सयंकरम् ।।१८६.३।।
___ अर्थ-यदि वही चिर दीक्षित शुरवीर मुनि अपने अभिमान के कारण ऊपर लिले दोषों को लगा तो उसके लिये आचार्यों ने समस्त दोषों को दूर करनेवाला परगणोपस्थापन नामका परिहार प्रायश्चित्त बतलाया है ॥१८९३॥
परगण अनुस्थापन प्रायश्चित्त की विधिसापराधः प्रतव्यः सरिता गणितंप्रति । सोप्याचार्यों गिराकर्ण्य सस्थालोचममंजसा ॥१६॥ प्रायश्चित्तमत्त्वाचार्मान्तरंभापयेध तम् । इत्येवं न प्रोतव्योयावत्सरिश्मसम्तमः ॥१५॥ प्रेषितः पश्चिमेनष पूर्वाचार्यप्रतिस्फुटम् । प्रायश्चित्त घरेत्सर्वप्रागुक्त स बलान्वितः ॥१८६६।।
अर्थ- उसकी विधि यह है कि आचार्य उस अपराधी को प्रन्य संघके भाचार्य के पास भेजते हैं। वे दूसरे प्राचार्य भी उसकी कहो हुई सब आलोचना को सुनते हैं तथा बिना प्रायश्चित्त दिये उसको तीसरे आचार्य के पास भेज देते हैं। वे भी मालोचना सुनकर चौथे आचार्य के पास भेज देते हैं । इसप्रकार यह सात आचार्यों के पास मेमा जाता है । सातवें आचार्य आलोचना सुनकर उसको उसके ही गुरुके पास अर्थात पहले ही आचार्य के पास भेज देते हैं। तदनन्तर ये आचार्य ऊपर लिखा परिहार नामका प्रायश्चित्त देते हैं और वह शक्तिशाली मुनि उस सब प्रायश्चित्त को धारण करता है।