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मूलाचार प्रदीप
( २६८)
[पष्ठम अधिकार झान विनय के स्वरूप का वर्णनकालाचं रष्टधाचारविनयेनार्जनादिभिः । कृत्स्नानामंगपूर्वारणां शानायाज्ञानहानये ॥१६१६॥ त्रिशुद्धधा पठनं शुद्ध पाठनं यच्चयोगिमाम् । चिन्तनं हृदयेत्ययं परिवर्तनमंजसा ॥१६२०॥ ख्यापनं कोर्सनं लोके प्रकाशनमनारतम् । शानिनां भक्तिसन्मानं ज्ञानाविगुणभाषणम् ॥१९२१॥ इत्यायन्यच्छ तज्ञानगुरगाहणमूजितम् । क्रियते स समस्तोपि झानाख्योविनयो तः ।।१९२२॥
अर्थ-अपने ज्ञान को वृद्धि करने के लिये और अजान को दूर करने के लिये विनय के साथ तथा कालाचार, शब्दाचार, अर्थाचार आदि पाठों आचारों के साथसाय समस्त अंग और पूर्वो की पूजा करना, मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक अंग पूर्वो को शुद्ध पढ़ना, अन्य योगियों को पढ़ाना, उनका चितवन करना, हृदय में बार बार विचार करना, उनकी प्रसिद्धि करना, प्रशंसा करना, लोक में निरन्तर उनका प्रचार करना, ज्ञानी पुरुषों की भक्ति और उनका सम्मान करना, ज्ञानादिक गुणों का उपदेश देना तथा मौर भी श्रुतज्ञान के उत्कृष्ट गुणों को ग्रहण करना ज्ञानविनय कहलाता है। यह समस्त ज्ञानविनय बहुत ही अद्भुत है ।।१६१६-१९२२॥
चारित्र विनय के स्वरूप का वर्णनकषायेन्द्रियचौराणां प्रमावानां च वर्जनम् । अतगुप्तिसमिश्याथाचरणे पानमन्वहम् ।।१६२३।। महातपाधनानां च भुत्वाचरणमतम् । अंजली करणं भक्त्या प्रणामं वृत्तशालिनाम् ।।२४॥ प्रत्यागम्यत्सुचारित्रमाहात्म्यस्य प्रकाशनम् । लोके विधीयते यत्स चारित्रविनयोखिलः ॥२५॥
___ अर्थ--कषाय और इन्द्रिय रूपी चोरों का सर्वथा रयाग कर देना, प्रमादों का सर्वथा त्याग कर वेना, वत समिति गुप्ति आदि के पालन करने में प्रतिदिन प्रयत्न करना, महातपस्वियों के अभत पाचरणों को सुनकर उनके लिये भक्ति पूर्वक हाथ जोड़ना, चारित्र पालन करनेवालों को भक्ति पूर्वक प्रणाम करना तथा इसीप्रकार और भी संसारमें चारित्र के माहात्य को प्रगट करना चारित्रविनय कहलाता है ।।१९२३१६२५॥
सप विनय के स्वरूप का वर्णनप्रातापनावि सद्योगे हा तराल्ये गुणेन से । दुष्करे च द्विषड्भेदे घोरे तपसि दुघरे ॥१९२६॥ भडोत्साहानु रोगाकांक्षावीनां करणं महत् । तपोधिकयसीनां च प्रणामस्तधनादिकम् ।।१९२७।।
पडावश्यकसम्पूर्णपिचत्तषलेगाविवजनम् । तपसा करणे चीर्यावानं पंचाक्षनिर्णयः १११९२८॥ इल्यान्यातपोऽनयगुणानां यत्प्रकीर्तनम् । सत्तपोजमहोना स सपोविनयोखिलः ॥१९२६।।