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लाचार प्रदीप ]
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[ षष्ठम अधिकार
धारण कर जो युक्तिपूर्वक शरीर के ममत्व का त्याग करता है उसको श्रेष्ठ कायोत्सर्ग कहते हैं ।। १८७५-१८७६ ॥
तप नामक प्रायश्चित्त का वर्णन
व्रतातीचारमाशायोपवासाचाम्लयोमु वा । तथा निविकृतेरेकस्थानावे: करणं तपः || १८७७ ॥
अर्थ-व्रतों के अतिचारों को दूर करने के लिये उपवास करना, आचाम्ल करना, निविकृति ( रसत्याग) करना अथवा एकाशन करना आदि लप कहलाता है । ।।१८७७ ।।
मुनि की उपरोक्त ६ प्रकार के यथायोग्य प्रायश्चित्त देना चाहियेभोन्मादमा दानवदोषाशक्तिकारणः । श्रन्यविस्मरणार्थ श्च जातातीधारहानये ।। १८७८ ।। तादीनां प्रदातव्यं पूर्वोक्तं षड्विधं यते । प्रायश्चितंयथायोग्यंशक्तस्येहे तरस्य च ॥ १८७६ ॥
अर्थ - यदि किसी भयसे, उन्मादसे, प्रमादसे, अज्ञानतासे वा असमर्थता से अथवा विस्मरण हो जाने से या और भी ऐसे ही ऐसे कारणों से व्रतों में प्रतिचार लगे हों तो उनको दूर करने के लिये समर्थ अथवा असमर्थ मुनि को अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार ऊपर लिखे छहों प्रकार के प्रायश्चित्त देने चाहिये ।।१८७८ १८७६ ॥
छेद नामक प्रायश्चित्त का स्वरूप
fare प्रवृजितस्यैव शूरस्य गवितस्य था । कृतदोषस्य मासादिविभागेन च योगिनः ॥ १८८० ॥ छित्वा प्रजनं तद्दीक्षया लघुमहात्मनाम् । प्रधोभागे किलावस्थापनं यच्छेद एव सः ।। १६८१ ।।
अयं - यदि कोई मुनि चिरकालका दीक्षित हो वा शूरवीर हो वा अभिमानी हो और वह अपने वृतोंमें दोष लगावे तो उसको एक महीना, दो महीना, एक वर्ष, दो वर्ष आदि की दीक्षा का छेद कर देना और उसको उससे छोटे मुनियों से भी ( उसके बाव बीक्षित हुए मुनियों से ) नीचे कर देना छेद नाम का प्रायश्चित्त कहलाता है ।
।। १८८०-१६८१॥
मूल नामक प्रायश्चित्त का स्वरूप
पार्श्वस्थाविकपचानां महावोधकृत पुनः । वासेविनां दीक्षादानं मूलमिहोच्यते || १६६२ ।। अर्थ- जो महा दोष उत्पन्न करनेवाले पार्श्वस्थ आदि पांच प्रकार के मुनि हैं अथवा जिन्होंने अपने ब्रह्मचर्य का घात कर दिया है, ऐसे मुनियों की सब दीक्षा का
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