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मूलानार प्रदीप
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[षष्ठम अधिकार यही समझकर शिष्यों को बहुत ही शीघ्न दोषों को दूर करनेवाला प्रायश्चित्त लेना चाहिये । प्रायश्चित्तके लेने में थोड़ीसी भी देर नहीं करनी चाहिये ।।१८६८-१८६६।।
प्रतिक्रमण का स्वरूप--- विनाविजनतातीबाराणां निंदनगर्हणः। विशोषनंत्रिशुसमा परप्रतिक्रमणमेवतत् ।।१८७०।।
अर्थ---विन वा रात के व्रतों में जो अतिचार लगे हों उनको मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक निवा, गर्हा आदि के द्वारा शुद्ध करना प्रतिक्रमण कहलाता है। ॥१८७०॥
आलोचना सहित प्रतिक्रमण का स्वरूप-- कश्चिद्दोषोव्रतादीनां नश्यत्मालोचनाद्भुतम् । दुःस्वप्नादिजकर्मा यःसत्प्रामणेन च ।।१९७१।। मत्त्यारोपनापूर्व प्रति नाजसा ।
पाकिस्मो मार हि तत् ॥१८७२।। अर्थ-व्रतादिकों के कितने ही दोष आलोचना से नष्ट होते हैं और दुःस्वप्न आदि से उत्पन्न होनेवाले कितने ही दोष प्रतिक्रमण से नष्ट होते हैं । यही समझकर पाक्षिक चातुर्मासिक वार्षिक दोषों को दूर करने के लिये वचनपूर्वक जो पालोचना सहित प्रतिक्रमण किया जाता है उसको तदुभय कहते हैं ॥१८७१-१८७२।।
विवेक नामक प्रायश्चित्त का स्वरूपद्रश्यक्षेत्रानपानोपकरणाविषु पोषतः । निर्वर्तन हत्यात सविधेको य नेकधाथवा ॥१८७३१५ प्रत्याश्यानस्य वस्तीग्रहोविस्मरणात्सति । स्मृत्वा पुनश्च तत्यागो यो विवेकः स कप्यते ॥४॥
अर्थ--द्रव्य, क्षेत्र, अन्न, पान, उपकरण आदि के दोषों से शुद्ध हृदयसे अलग रहना विवेक है । यह विवेक अनेक प्रकार का है । अथवा भूल से त्याग को हुई वस्तु का ग्रहण हो जाय और स्मरण हो आने पर फिर उसका त्याग कर दिया जाय उसको विवेक कहते हैं ।।१८७३.१८७४।।
कायोत्सर्ग नामक प्रायश्चित्त का वर्णनदुश्चिन्तन सं दुःस्वप्नदुर्ध्यानाय मल प्रवः । मार्गवजनमद्याच तरणंरपरेदशः ॥१८७५।। जातातीचारशुरुघर्थमालंध्यध्यानमुत्तमम् । कामस्य स्थजन युक्त्यामरस युस्सगं जितः ॥१८७६॥
अर्थ-अशुभ चितवन, आर्तध्यान, दुःस्वप्न, बुान आदि से उत्पन्न हुए दोषों को शुद्ध करने के लिये अथवा मार्ग में बलना, नवी में पार होना तथा और भी ऐसे ही ऐसे कामों से उत्पन्न हुए अतिचारों को शुद्ध करने के लिये उत्तम ध्यान को