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मूलाचार प्रदीप ]
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[ षष्ठम अधिकार अर्थ-जो मुनि इन वश दोषों को छोड़कर बालक के समान सरल स्वभाव से अपने दोषों को कह देते हैं उन्हीं को पालोचना से उनके सम प्रत शुद्ध हो जाते हैं। ॥१५६३॥
___ मलीन दर्पण सदृश्य प्रालोचना बिना महाप्रत सार्थक नहींमहत्तपोवतंसर्व बानालोचनपूर्वकम् । न स्थकार्यकर जातु मलिनावर्शववि ॥१८६४॥
अर्थ-जिसप्रकार मलिन दर्पण अपना कुछ काम नहीं कर सकता उसमें मुख नहीं दिख सकता उसी प्रकार महा तपश्चरण और महानत भी बिना आलोचना के अपना कुछ भी काम नहीं कर सकते, अर्थात् उनसे कर्मों का संवर वा निर्जरा नहीं हो सकती ॥१८६४॥
शुद्ध हृदय से दोषों को प्रगट करना चाहिये--- विदित्येतिधिरं चित्रे व्यवस्थाप्यस्वदूषणम् । प्रकाशनीयमस्यर्थ गुरोरन्तेशुभाशयः ॥१८६५।।
अर्थ-यही समझकर अपने हृदय में अपने दोषोंको अच्छी तरह समझ लेना चाहिये और फिर अपने शुद्ध हृदय से गुरु के समीप उन दोषों को प्रगट कर देना चाहिये ॥१८६५॥
दोषों की आलोचना कब किस विधि से करेंसुरेरेकाकिनः पार्वे स्वदोषाणां प्रकाशनम् । अद्वितीयस्यशिष्यस्यैकान्तेप्युक्त न धान्यथा ॥६६॥ प्रकाशे दिवसेसूरेरन्ते स्वालोधनादिकम् । प्रायिकायाः सतामिष्टं तृतीये सज्जनेसति ॥१८६७।।
अर्थ-जिस समय प्राचार्य एकांत में अकेले विराजमान हों उस समय अकेले शिष्य को उनके समीप जाकर अपने दोष कहने चाहिये किसी के सामने अपने दोष नहीं कहने चाहिये । अजिकाएं दिन में ही प्रकाश में ही किसी को साथ लेकर आचार्य के समीप जाकर अपने दोषों की आलोचना करती हैं ऐसा सज्जन लोग कहते हैं । ॥१८६६-१८६७।।
प्रायश्चित्त लेने में प्रमाद नहीं करना चाहियेकृतालोचनदोषो यो न सदोषापहं तपः । कुर्यात्तस्य न जायेत मनाकशुद्धिः प्रमाविनः ।।१६६८।। विनायेति हुतं कार्य प्रायश्चित्तं मलापहम् । न चास्याधरणेकिचिनिषेयं काललधनम् ।।१८६६।।
अर्थ--जो मुनि दोषों को पालोचना कर लेता है परन्तु उस दोष को दूर करनेवाले तपश्चरणको नहीं करता उस प्रमादीके शोषों को शुद्धि कभी नहीं हो सकती।