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[ षष्ठम अधिकार
मूलाचार प्रदीप ]
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निवेदन करता है उसको चौथा वादर नामका दोष कहते हैं ।।१८४८-४६
सूक्ष्म दोष का स्वरूप --
writ geeरप्रायवित्तादिभयतोषवा । प्रयं सूक्ष्मातिचाररणां परिहारक ऊर्जितः ||१८५० ॥ अहोमत्येतयः स्वगुणस्थापनेच्या स्थूलदोषशतायोना कृत्यासंवरणं महत् ।। १८५१ ।। सूरेमहाव्रतादीनां स्वल्पवोषनिवेदनम् । मायया क्रियते यत्स दोषः सूक्ष्माभिधानकः ।। १८५२ ।।
अर्थ - जो प्रज्ञानी मुनि अपने अपयश के डर से अथवा कठिन प्रायश्चित्त के डरसे, अथवा "देखो इसके कैसे शुद्ध भाव हैं जो सूक्ष्म दोषों को भी अच्छी तरह प्रगट कर देता है" इसप्रकार के अपने गुणों के प्रगट होने की इच्छा से सैकड़ों बड़े-बड़े स्थूल दोषों को तो छिपा लेता है तथा मायाचारी से श्राचार्यके सामने महाव्रताविकों के सूक्ष्म दोषोंको निवेदन कर देता है उसको पांचवां सूक्ष्म नामका दोष कहते हैं ।। १६५०-५२ ॥ छत्र नामक दोष का स्वरूप
ईशे सत्यतीचारे प्रायश्चिसं हि कीदृशम् । इत्युपायेन पृष्ट्वा स्वगुरु सुश्रूषया ततः ।। १८५३ ।। स्वषामये शिष्यैः प्रायश्चिर्श विधीयते । यवकीर्तिभयात्लोके छतदशेषः स वोषवः ।। १८५४ ।।
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अर्थ – जो शिष्य लोक में फैलने वालो अपनी अपकीति के भयसे अपने दोनों को दूर करने के लिये सुश्रूषा करके गुरुसे पूछता है कि हे स्थामिन् 'इसप्रकार अतिचार लगने पर कैसा प्रायश्चिस होना चाहिये" इसप्रकार किसी भी उपाय से पूछकर वह जो प्रायश्चित्त लेता है, वह अनेक दोषों को उत्पन्न करने वाला छन नाम का वोष कहलाता है ||१८५३-५४।।
शब्दाकुलित दोष का स्वरूप --
पाक्षिके दिवसे चातुर्मासिके शुभकर्मरिण । वा सांवत्सरिके तीब समवाये महात्मनाम् ।।१८५५ ।। स्वस्मालोश्चम संजाते बहुशब्दाकुलसति । मद्दोष कथनं बोष. शब्दाकुलित एवं स ।। १८५६ । ।
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अर्थ --- जिस समय पाक्षिक मालोचना हो रही हो अथवा देवसिक वा चातुमासिक आलोचना हो रही हो अथवा वार्षिक मालोचना हो रही हो अथवा किसी शुभ काम के लिये महात्माओं का समुदाय इकट्ठा हुआ हो तथा सब इकट्ठे मिलकर अपनी-अपनी आलोचना कर रहे हों और उन सबके शब्द ऊंचे स्वर से निकल रहे हों 'उस समय अपने दोष कहना जिससे किसी को मालूम न हो सके उसको शब्दाकुलित दोष कहते हैं ।। १८५५-५६ ॥
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