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मूलाचार प्रदीप ]
(२७)
[ षष्ठम अधिकार रहित आलोचना करनी चाहिये ॥१८४०-४१॥
प्रापित दोष का स्वरूपरम्योपकरणे इत्ते ज्ञानावासति चापरे । तुष्ट सरिममप्रावरियक्षस्तोक हि सस्पति ॥१९४२।। मवेतिप्राप्रदायोच्च ज्ञानरेपकरणाविकम् । सरेरालोधनं यत्सदोष प्राप्तिाह्वयः ॥१८४३।।
अर्थ-यदि प्राचार्य महाराज को कोई सुन्दर ज्ञानोपकरण दे दिया जाय तो प्राचार्य सन्तुष्ट हो जायेंगे और मुझे बहुत थोड़ा प्रायश्चित देंगे । यही समझकर ओ प्राचार्य को पहले ज्ञानोपकरणादिक देता है और फिर उनके समीप जाकर आलोचना करता है उसको प्राकंपित नामका दोष कहते हैं ।।१८४२-४३।।
___अनुमानित दोष का स्वरूपपित्ताधिकः प्रकृत्याहं दुषलोग्लान एव च । नालं कर्तुं समर्थोऽस्म्युपवासाविकमुल्बरणम् ।।१८४४।। यदि मे दीयतेस्वल्पंप्रायश्चितं ततः स्फुटम् । करिष्यत्ययोषाणां सर्वेषां च निवेदनम् ।।४५।। नायथेतियचोनोमवा क्रियते भूरिस निधी । शिध्येरालोचनं यास दोषोनुमानिताभिधः ॥१८४६।।
___ अर्थ-मेरे शरीर में पित्त प्राकृतिका अधिक प्रकोप है अथषा मैं स्वभाव से ही दुर्बल हूं, अथवा मैं रोगी हूं इसलिये मैं अधिक बा तोत्र उपवासादिक नहीं कर सकता । यदि मुझे बहुत थोड़ा प्रायश्चित्त दिया जायगा तो मैं अपने समस्त दोषों का निवेदन प्रगट रीति से कर दूंगा अन्यथा नहीं इसप्रकार कहकर जो शिष्य प्राचार्य के समीप अपने दोष निवेदन करता है उसको अनुमानित दोष कहते हैं ॥१८४४.४६॥
दुष्ट दोष का स्वरूपअन्यरदृष्ट दोषारणा कृत्योपगृहनं च यत् । कवनं दृष्टदोषाणां दृष्टदोषः स उच्यते ॥१८४७॥
अर्थ- जो शिष्य दूसरों के द्वारा बिना देखे हुए वोषों को तो छिपा सेता है और देखे हुए दोषों को निवेदन कर देता है उसके पालोचना का दृष्ट नाम का बोष लगता है ॥१८४७।।
चादर दोष का स्वरूपबालस्याचप्रमादावाह्य ज्ञानाद्वालसंयत्तः । अल्पापराधराशीना निवेदनादते भुवि ॥१४॥ प्राचार्यनिकटेयवस्थूलदोषनिवेदनम् । विषीयते स दोषश्चतुर्थो वाइरसंशकः ॥१४॥
अर्थ-जो बालक मुनि वा अज्ञानी मुनि अपने प्रालस प्रमाद वा प्रज्ञान से छोटे-छोटे अपराधों को तो निवेदन नहीं करता किंतु अपने आचार्य से स्थूल दोषों को
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