________________
मूलाधार प्रदीप ]
( २८५)
[षष्ठम अधिकार न्द्रिय का विजय होता है । यही समझकर विद्वानों को मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिये अपनी शक्ति के अनुसार अनेक गुणों की खानि ऐसा यह कायक्लेश नामका तप अवश्य धारण करना चाहिये ॥१८२५-१८२६।।
बाह्य तपका स्वरूपयेन नोल्पयते पुसा संक्लेशो मनसोशुभः । वर्तते तपसाश्रद्धादुर्ध्यानाविपरिक्षयः । १८२७।। न हीयन्ते महायोगा बर्द्धन्ते प्रवरागुणाः । अभ्यन्तरतास्यवतद्वाह्य परमं तपः ॥१८२८॥
अर्थ-जिस तपश्चरणसे मनुष्यों के मनमें अशुभ संक्लेश उत्पन्न न हो, जिससे तपश्चरणमें श्रद्धा उत्पन्न होती रहे, अशुभञ्यानों का नाश होता रहे, महायोग वा धर्मशुक्ल ध्यान में किसी प्रकार की कमी न हो, श्रेष्ठ गुण बढ़ते जाय और अन्यन्तर तपश्चरण भी जिससे बढ़ते जांय उसको बाह्य परम तपश्चरण कहते हैं ॥१८२७-२८॥
अभ्यन्तर तप की वृद्धि हेतु बाह्य तप करने की प्रेरणाप्रभ्यन्तरतपोवृद्धयर्थ बाह्य निखिलं तपः । फोतिलंयोतरागेरध्यानाध्यमकारणम् ॥१८२६।। मत्स्यन्तस्तपणे बद्धनगोमा तपोधनाः । सर्वमान्त कमलामी शिवाय च ।।१८३०॥
अर्थ-भगवान सर्वज्ञवेव ने अभ्यन्तर तप को बढ़ाने के लिये ही ध्यान और अध्ययन का कारण ऐसा यह अनेक प्रकार का बाह्य तपश्चरण बतलाया है। यही समझकर तपस्वी लोगों को अपने अंतरंग तपको वृद्धि के लिये, कर्मों को नाश करने के लिये और मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपनी समस्त शक्ति लगाकर इस बाट तपश्चरण को पालन करना चाहिये ॥१८२६-३०॥
अभ्यन्तर के कथन की प्रतिज्ञा और उसका स्वरूपइतिवाझ तपः सम्यगव्याख्याय श्रीजिनागमात् 1 इस ऊवं सता सिद्ध पक्ष्याम्यभ्यम्सरं तपः ।। ध्यक्त यन्नापरेषां पा तपः कतुं न शक्यते । मिथ्याग्भिः शस्तम्चाभ्यन्सरं प्रवरं तपः ।।३२।।
अर्थ-इसप्रकार जैन शास्त्रों के अनुसार बाह्यतप का निरूपण अच्छी तरह से किया । अब आगे सज्जनों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये अभ्यन्तर तपका निरूपण करते हैं । जो तप धूसरों के द्वारा प्रगट दिखाई न दे, तथा मिथ्यादृष्टि प्रशानी जिस तपको धारण न कर सके उसको श्रेष्ठ अभ्यन्तर तप कहते हैं ॥१८३१-२२॥
अभ्यन्तर तप के भेवप्रायश्चित्तं च दोषनं निमयं सगुणाकरम् । यावत्यं तपः सारं स्वाध्यायो पर्मसागरः ॥३३॥