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मुलाचार प्रदोष ]
( २८४ )
[ षष्टम अधिकार्य
विषयगुहा वा
वाशयनासनम् । ध्यामाध्ययनसिद्धयं तद्विविक्तशयनासनम् ॥ १८२०॥ अर्थ – मुनिराज अपने ध्यान और अध्ययन को सिद्धि के लिये स्त्री, देवी, पशु, नपुंसक आदि तथा गृहस्थ जहां निवास न करते हों ऐसे सूने प्रदेशों में वा श्मशान में या निर्जन वन में प्रथवा गुफा आदि में शयन करते हैं था बैठते हैं उसको विविक्तशम्मासन नामका तप कहते हैं ।।१८१६ १८२०॥
विविक्त शय्यासन तपका फल उसे पालन करने की प्रेरणा
ध्यानाध्ययननिविघ्ना रागद्वेषाविज्ञानयः । लभ्यन्तेतपसानेन साम्यताथा महागुणा। ॥। १८२१|| मी तपः कार्यं ध्यानादिसिद्धये वहम् | सरागस्यानकांस्त्यवत्वा स्थित्वा शून्यगृहादिषु ||२२||
अर्थ- इस तपश्चरण से ध्यान और अध्ययन निर्विघ्न रीति से होते हैं तथा रागद्वेष आदि कायों का सर्वशा नाश हो जाता है । इसके सिवाय इस तपश्चरण से समता आदि अनेक महागुण प्रकट हो जाते है। यही समझकर ध्यान अध्ययन आदि की सिद्धि के लिये मुनियों को राग उत्पन्न करनेवाले स्थानों का त्याग कर और निर्जन एकांत स्थान में निवास कर प्रतिदिन इस तपश्चरण का पालन करते रहना चाहिये ।
।। १८२१-१८२२।
कायक्लेश सपका स्वरूप
कायोत्सर्गेकपारवदिशय्यावश्रासताविभिः । श्रातपनावियोश्च त्रिकाल गोचरैः परः ।। १५२३ ।। तपोवृद्धधा मनः शुद्धधा कायक्लेश विधीयते । म कायशर्महान्ये तत्कायक्लेशतपो महत् ।। २४ ।। अर्थ- मुनिराज शरीर के मुख की हानि के लिये तपश्चरण बढ़ाने के लिये मनकी शुद्धता के साथ-साथ कायोत्सर्ग धारण कर, एक कटसे सोकर वज्रासन आदि कठिन आसन लगाकर, वा वर्षा ग्रीष्म आदि तीनों ऋतुओं में होनेवाले उत्कृष्ट प्रातापनादिक कठिन योग धारण कर जो कायक्लेश सहन करते हैं उसको सर्वोत्कृष्ट कायक्लेश नामका तप कहते हैं ।। १८२३-२४ ।।
कायक्लेश तप करने का फल एवं उसे धारण करने की प्रेरणाबर्खायामहीश्च सुखं त्रैलोक्यसंभवम् । कामेन्द्रियजयादीनिलभन्तेय फलादिः || १८२५ ।। विज्ञायेति सदा कार्य: कायक्लेशोपुखाकरः । निजशक्यनुसारेण विद्वद्भिः शिवशमं ।। १८२६।। अर्थ - इस तपश्वरण के फल से विद्वानों को बल ऋद्धि आदि अनेक महा ऋद्धियां प्राप्त होती हैं तीनो लोकों में उत्पन्न होनेवाला सुख प्राप्त होता है और कामे