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मूलाचार प्रदीप]
( २८६)
[ षष्ठम अधिकार कायोत्सर्गः शुभध्यानमित्यन्तः शुद्धिकारणम् । अन्यतरं सपः षोढास्यादन्तः शत्रुधातकम् ॥३४॥
मर्थ-समस्त दोषों को दूर करनेवाला प्रायश्चित्त, श्रेष्ठ गुणोंको खानि ऐसा विनय, तपश्चरण का सारभूत तप वैयावृत्ति, धर्मका सागर स्वाध्याय, तथा कायोत्सर्ग
और अंतरंग को शुद्ध करनेवाला शुभध्यान यह छह प्रकार का अंतरंग तप है यह छहों प्रकार का अंतरंग तप समस्त अंतरंग शत्रुओं को नाश करनेवाला है ॥१८३३-३४।।
प्रायश्चित्त तपका स्वरूप ब उसके भेदकृतोवो मुनियेनवियुद्धपतितरां धूपं शतनामयि पशुद्धिनम् ।१८३५।।
प्रासोचनं च बोषध्नं प्रतिक्रमणमूजितम् । ततस्तदुमय सारं विवेको गुणसागरः ।।१८३६।। कायोत्सर्गस्तपरच्छेवो मूल दोषक्षयंकरम् । परिहारमधश्रद्धानं प्रायश्चित्तं दश त्मकम् ॥१८३७।।
अर्थ-जिस ध्यानसे मुनियों के व्रतों में लगे हुए वोष शुद्ध हो जाय उसको प्रायश्चित्त कहते हैं, इस प्रायश्चित्त के वश भेद हैं और यह समस्त व्रतों को शुद्ध करने वाला है । दोषों को नाश करनेवाली आलोचना १, उत्कृष्ट प्रतिक्रमण २, सारभूत सदभय ३, गुणोंका सागर ऐसा विवेक ४, कायोत्सर्प ५, तप ६, छेव ७, दोषों को क्षय करनेवाला मूल ८, परिहार है, और श्रद्धान १०, यह दश प्रकार का प्रायश्चित्त कहलाता है ।।१८३५-३७॥
पालोचना प्रायश्चित्त का स्वरूप-- प्रायश्चिसावितिद्धातविक्षः सूरेः रहस्यपि । पंचाचाररतस्यान्ते यक्वामायां निवेदनम् ॥३॥ यद्विशुद्ध बतायोनायोगः कृतादिकर्मभिः । कृतातीधारकरस्नानां तबालोचनमुध्यते ॥१३॥
अर्थ-जो प्राचार्य प्रायश्चित्त और सिद्धांतशास्त्रों के जानकार हैं और जो पंचाचार पालन करने में लीन हैं, उनके समीप एकांत में बैठकर अपने व्रत तप आदि की शुद्धि के लिये बिना किसी छलकपटके मन-वचन-काय और कृत कारित अनुमोदना से किए हुए समस्त अतिचारोंका निवेदन करना अालोचना कहलाता है ॥१८३८-३६।।
आपितादि दोष से रहित मालोचना करना चाहियेप्राकंपिताख्यो बोषोऽनुमानितोवृष्टसंजकः । वारः समदोषाध्छनः शब्याकुलिताद्वयः ।।४।। शोषो बहुजनो व्यक्तस्तत्सेविससमाह्वयः । वशनोषा प्रमोत्याग्या पालोचनस्य संपतैः ॥१८४१।।
अर्थ-इस आलोचना के प्रापित, अनुमानित, दृष्ट, वादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त, तत्सेवित ये बश दोष हैं । मुनियों को इन दश वोषों से