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मूलाचार प्रदीप ]
( २७२ )
[षष्ठम अधिकार को प्रतिदिन सिद्धांत के अध्ययन में लगाकर इस वाग्गप्ति का पालन करना चाहिये । समस्त प्रागम को जानने वाले मुनियों को या तो नित्य मौन धारण करना चाहिये अयथा प्रयत्न पूर्वक अपने शिष्यों को प्रापमका पाठ पढ़ाना चाहिये । अथवा मोक्षमार्ग को प्रवृत्ति करने के लिये करुणा बुद्धि से सज्जनों का अनुग्रह करने के लिये कभी-कभी धर्मोपदेश देना चाहिये ॥३५-३८।।
मुनि को कंसे वचन नहीं बोलना चाहिये--- एहि गच्छ मुवा तिष्ठ कुरु कामिदं द्रुतम् । इत्यादि न बनो वाच्यं प्राणत्यागेपि संयतः ।।३।। यतोत्रा संमतारा ये प्रेषणांकारयन्ति वा । यातायातं कुतस्तेषां वतायाः प्रारिणयातनात् ॥४०॥
अर्थ-मुनियों को प्राणों के त्याग करने का समय पाने पर भी "आयो जानो, प्रसन्न होकर बैठो, इस काम को शीघ्र करो" इसप्रकार के वचन कभी नहीं बोलने चाहिये । क्योंकि जो मुनि अन्य असंयमी लोगोंको बाहर भेजते हैं अथवा उनसे माने जाने का काम लेते हैं उनके कारितजन्य प्राणियोंका घात होने से प्रतादिक निर्मल कैसे रह सकते हैं अर्थात् कभी नहीं ॥३६-४०॥
श्रेष्ठ ध्यान के लिये मौन धारण करने की प्रेरणा--- यषा पथात्रबाहया व पते पाक तपा तथा । यष्यते कर्म लोकोक्तिरिमं सत्या न चान्यया ।।४।।
बायोऽप्यनिरोष यो विधातुमक्षमोषमः । स मनोसकषायारणां निग्रहं कुरुते कथम् ॥४२॥ दिविस्वेति सदाकाय मौनं सध्यानवीपकम् । निहस्यसिद्धये नि बाह्य वाग्जालमंजसा ।।४।।
अर्थ-"ये लौकिक प्राणी जैसे-जैसे बाह्य पदार्थों के लिये बातचीत करते हैं वैसे ही वैसे उनके कर्म बंधते जाते हैं"। यह जो लोकोक्ति है वह सत्य है इससे विपरीत कभी नहीं हो सकता । जो नीच मनुष्य वचनों को रोकने में भी असमर्थ है वह भला मन इन्द्रियां और कषायों का निग्रह फैसे कर सकता है ? अर्थात् कभी नहीं कर सकता । यही समझकर मुनियों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये प्रत्यंत निध ऐसे अपने बाह्य वाग्जाल को रोक कर श्रेष्ठ ध्यानको प्रगट करने के लिये वीपक के समान ऐसे इस मौनवत को सदा धारण करते रहना चाहिये ।।४१-४३॥
__ मौन व्रत की महिमायतोमानेनवक्षारणास्वपि कलहोस्ति न । मोनेनायु नियन्तेहो रागषादयोरयः ॥४||
भौमेनगुणराशिपथ सम्पते सकलागमम् । मोमेम केवलज्ञान मौनेनश्रुतमुत्तमम् ।।४।। मोनेन मानिनों नूनं सर्वेषां निर्भयो महान् । परीषहोपसरणा पुरणाः सातिनिर्मलाः ॥६॥