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मूलाचार प्रदीप ]
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[षष्ठम अधिकार , कुवा यत्स्थाप्यले धोरै व्युत्सर्गे या वृद्धासने । निष्पर काष्ठवन्मुक्त्यै सा कायगुप्तिमत्तमा ॥५२।।
अर्थ-जो मुनि अपने हाथ पैर प्रावि शरीर के अवयवों को अपनी इच्छानुसार नहीं हिलाते, और अपने शरीर में कोई विकार उत्पन्न नहीं होने देते, वे धीर वीर मुनि मोक्ष प्राप्त करने के लिये अपने शरीर को कायोत्सर्ग में या किसी दृढ़ आसनपर काठके समान निश्चल स्थापन करते हैं उसको उत्कृष्ट कायगुप्ति कहते हैं ॥५१-५२॥
कायगुप्ति पालने का फल -- कायगुप्त्यात्र धीराणां सर्वप्राणिदया भवेत् । निष्प्रकप पर ध्यानं संवरो निर्जरा शिवम् ।।५३॥
अर्थ-इस कायगुप्तिको धारण करने से धीर वीर मुनियों के समस्त प्राणियों की बया पल जाती है, निश्चल ध्यान की प्राप्ति हो जाती है तथा संवर निर्जरा और मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है ॥१७५३॥
___ शारीरिक चंचलता से हानि व उसे रोकने की प्रेरणाकाय चंचलयोगेम मियन्तेजन्तुराशयः । सम्मले बतभंगः स्यासतो नर्थपरंपरा ॥१७५४।। मत्वेति विकियां सर्वां त्यक्त्वा नेनमुखादिजाम् । निद्यांचपलतारुध्दा शाम्यचित्रोपमं वपुः ॥५५।। कृत्वामोशाय संस्थाप्य कायोत्सर्गासनादिषु । कायगुप्तिविषातच्या प्रत्यहं ध्यानमातृका ।।१७५६।।
अर्थ-शरीर की चंचलता के निमित्त से बहुत से जीवों की राशि मर जाती है, उनके मरने से वृतका भंग हो जाता है और व्रत भंग होने से अनेक अनर्थों की परम्परा प्रगट हो जाती है । यही समझकर नेत्र वा मुखसे होनेवाले समस्त विकारों का त्याग कर देना चाहिये, निध चपलता को रोकना चाहिये और चित्र के समान शरीरको प्रत्यंत शांत और निश्चल रखकर मोक्ष प्राप्त करने के लिये कायोत्सर्ग में वा किसी आसन पर दृढ़ रखना चाहिये । इसप्रकार ध्यान की माता के समान इस कायप्तिको प्रतिदिन पालन करना चाहिये ॥१७५४-१७५६॥
कायगुप्ति की महिमासुरशियगतिवीथीं दीपिका प्यानसोधे व्रतसकलवराम्बा कर्मवृक्षे कुठारीम् । जिनमुनिगणसेध्या कायप्ति पवित्रां श्रयतजितकराया यत्नतोमुक्तिसिद्धय ।।१७५७।।
अर्थ यह कायगृप्ति स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग है, ध्यानरूपी राजभवन को दिखलाने के लिये दीपक के समान है, समस्त व्रतों को श्रेष्ठ माता है, कर्मरूपी वृक्षको काटने के लिये कुल्हाड़ी है, भगवान जिनेन्द्र देव और मुनियों के समूह