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मूलाचार प्रदीप]
( २७३ )
[ षष्ठम अधिकार मौनेन मुक्तिकाम्सा त्यासक्त्यावृणोति मानिनम् । स्वभार्येषाचिरावेत्य का कपाहोच योषिताम् ।।
अर्थ-इसका भी कारण यह है कि इस मौनको धारण करने से चतुर पुरुषों को स्वप्न में भी कभी कलह नहीं होता तथा इसी मौन वतसे रागद्वेषादिक शत्रु बहुत शीघ्र नष्ट हो जाते हैं । इसी मौन से समस्त गुणों की राशि प्राप्त होती है, इसी मौन से समस्त शास्त्रों का ज्ञान होता है, इसी मौन से केवलज्ञान प्रगट होता है, इसी मौन से उसम श्रुतज्ञान प्राप्त होता है । इसी मौन व्रतसे ज्ञानी पुरुष समस्त परीषह और समस्त उपसर्गों का महान् विजय प्राप्त करते हैं और इसी मौनव्रत से समस्त निर्मल गुण प्राप्त होते हैं । इसी मौन व्रतसे मुक्तिरूपी स्त्री अत्यन्त आसक्त होकर अपनी स्त्री के समान नहुत शीघ्र मैनाती को सीताद भारती है फिर भला देवांगनाओं को तो बात ही क्या है ।।१७४४-१७४७॥
असंख्यात गुणों के कारणभूत वाग्गुप्ति त्याग का निषेधइमान् मौनगुणान् ज्ञास्था संख्यातोलान् विवकिभिः। सम्वविश्वामिष्पत्य तस्कार्य च सुलाकरम् ।। तथा मौनधतायोच्चविधासम्याघनाशिनी । धाग्गुप्तिः सर्षया जातु न त्याज्या कार्यकोटिभिः ।।
अर्थ-विवेको पुरुषोंको इसप्रकार मौनवतके असंख्यात गुण समझकर समस्त पुरुषार्थीको सिद्ध करने के लिये सुख की खानि ऐसा यह मौनवत अवश्य धारण करना चाहिये। इस मौनवत को पालन करने के लिये समस्त पापों को नाश करनेवाली वाग्गुप्तिका पालन करना चाहिये तथा करोड़ों कार्य होनेपर भी इस वाग्गुप्ति का त्याग नहीं करना चाहिये ।।१७४८-१७४९।।
पुनः वचमगुप्ति की महिमा और उसे धारण करने की प्रेरणाशुभगुणमरिणखानि स्वर्गमोक्षाविधात्री धुरिततिमिरहनीमर्गला पापगेहे । वृषसुखजननी वाग्गुप्तिमात्मार्थसिद्धं कुरुतनिखिलयत्मान्मौनमाषायनित्यम् ॥१७५०।।
अर्थ---यह वचनगुप्ति शुभ गुणरूपी मणियों को खानि है, स्वर्ग मोक्ष को देने वाली है, पाप रूपी अंधकार को नाश करनेवाती है, पापरूपी घरको बंद करने के लिये अर्गल वा पेंडा के समान है तथा धर्म और सुख की माता है । अतएव शुख आत्मा की प्राप्ति के लिये समस्त यत्नों से सदा मौन धारण कर इस बचनगुप्ति का पालन करना चाहिये ।।१७५०।।
कायगुप्ति का स्वरूपहस्तांघ्र यवयवादींपच स्वेच्छयावत्तितोयलात् । माहस्य निखिलं देह विकिपातिगमूजितम् ॥५१॥