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मूलाचार प्रदीप ]
( २७७ )
[ षष्ठम अधिकार व्रतों के बिना जीवन की निष्फलताजीवितंप्रवरंमन्येविनैकं व्रतमुषितम् । तहिमा विफलं पंसा पूर्व कोटपादिगोचरम् ।।१७७१॥
___ अर्थ-वतों से सुशोभित होकर एक दिन भी जीवित रहना अच्छा परन्तु पतों के बिना मनुष्यों का करोड़ पूर्व तक जीवित रहना भी निष्फल है ॥१७७१॥
चारित्रवान की महिमा-- ममम्ति निजगन्नापांश्चारित्रालंकृतात्मनाम् । पादपमान मुदामूर्ना प्रत्यहं किंकरा इव ।।१७७२।। महाचारिष भूषारणा प्रतापेन सुरेशिनाम् । प्रासनानि प्रकम्पन्से साम्पन्ति रजन्तयः ।।१७७३।। धन्यः स एव लोकेस्मिन् सफलं तस्य जोदितम् । कवाचिच्चरणं येन न नीतं मममियी ॥४॥
अर्थ-जिनका प्रात्मा इस चारित्र से सुशोभित है उन मुनियों के चरण कमलोंको तीनों लोकों के इन्द्र सेवक के समान प्रसन्नता पूर्वक मस्तक नवाकर प्रतिदिन नमस्कार करते हैं। जो मुनि इस महा घारित्र से सुशोभित हैं उनके प्रताप से इन्त्रों के आसन भी कंपायमान हो जाते हैं तथा उन्हीं मुनियों के प्रताप से सिंहाविक कर घातक जन्तु भी शांत हो जाते हैं । जिन मुनियों ने अपने चारित्र को कभी भी मलिन नहीं किया है संसार में वे ही मुनि धन्य हैं और उन्हीं का जीवन सफल है ।।१७७२-७४।।
चारित्र के बिना उत्कृष्ट ज्ञान दर्शन मोक्ष का कारण नहींचारित्रेण विना मेनोत्कृष्टेपि शामवर्शने । समर्थ न शिवं कर्तुं सत्कर्थश्लाप्यते न मोः ।।१७७५।।
अर्थ- इस चारित्र के बिना अत्यंत उत्कृष्ट सम्यग्दर्शन और उत्कृष्ट शान भी मोक्ष प्राप्त कराने में समर्थ नहीं हो सकते फिर भला इस ऐसे चारित्र की प्रशंसा क्यों नहीं करनी चाहिये अवश्य करनी चाहिये ।।१७७५।।
चारित्र से शिथिल मुनि लंगड़े मशमहामानदगाढयोपि चारित्रशिथिलोयतिः । सम्मार्गगमनाशक्त: पंगुषाति मातु म ॥१७७६।।
अर्थ--महा ज्ञाम और महा सम्यग्दर्शन को धारण करने वाला भुनि यदि चारित्र से शिथिल हो जाय तो वह लंगड़े के समान मोक्ष माग में कभी यमम नहीं कर सकता तथा वह न कभी सुशोभित हो सकता है ॥१७७६।।
कौन निदनीय और कौन वंदनीयबरंप्राणपरित्यागः संयतामा शुभप्रवः । शषिल्यं शरणं कतुं मनागयोग्य मानिन्दितम् ||१७ पथावमुजारितो बंधः पूज्या स्तुप्तोमवेत् । मान्योविराजमोंगी तथामुखममरतये ॥१७७८..