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मूलाचार प्रदीप ]
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सर्वोत्कृष्ट तप आचार को कहता हूं ।। १७८२ ॥
[ षष्ठम अधिकार
तपाचार का स्वरूप व उसके भेद --
स्वेच्छाया अक्षशर्मादौ निरोधो यो विधीयते । तपोयिभिस्तपः सिद्धयं तवेव प्रवरं तपः ।। १७८३|| वाह्याभ्यन्तरमेवाभ्यां द्विघात सपउच्यते । तद्वा षड्विधं सोहाभ्यन्तरं च भवान्तकम् || ६४ ||
अर्थ -- तपश्चरण करनेवाले मुनि अपने तपश्चरणकी सिद्धि के लिये जो अपनी इच्छानुसार इन्द्रिय सुखों का निरोध करते हैं उसको श्रेष्ठ तप कहते हैं। इस तप के बाह्य अभ्यंतर के भेद से दो भेद हैं उसमें भी बाह्य तप के छह भेद हैं और संसारको नाश करनेवाले अभ्यंतर तपके भी छह भेव हैं ।। १७८३-१७८४ ।।
बाह्य तपका स्वरूप श्रीर उसके भेद
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यत्तपः प्रकटं सोऽन्येषां वात्र कुदृष्टिभिः । कर्तुं च शमयले बाह्य तत्तपः सार्थकं भवेत् ।। ८५ ।। प्राय धानशनं सारमवोदयसंज्ञकः । द्वितीयं तपोवृत्तिपरिसंख्यानमूजितम् ।।१७६६ ।। ततोरसपरित्यागो विविक्तशयनासनम् । कायश्लेशोत्रषोदेति तपो बाह्य मुखाकरम् ।।१७८७ ।।
श्रयं - जो तप संसार में प्रगट दिखाई देता है अथवा अन्य मिष्यावृष्टि भी जिसको धारण कर सकते हैं यह सार्थक नामको धारण करनेवाला बाह्य तप कहलाता है । अनशन अवमोदर्य, वृत्ति परिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और काय क्लेश इसप्रकार सुख देनेवाला बाह्य तप यह प्रकार है ।।१७६५-१७८७॥
अनदान तप का स्वरूप व उसके भेद-तत्साकांक्षनिराकांक्ष भेदाम्यां धीजिनाधिपैः । द्विधानशनमान्नासाकांक्षं बहुषाभवेत् ॥ १७८८॥ श्रमपान फसत्वाद्यस्वाद्यमेवंश्चतुविषः । श्राहारस्त्यज्यतेमुषायं यत्तपोनशमं हि तत् ॥१७६६ ॥
अर्थ - उसमें भी भगवान जिनेन्द्रदेव ने अनशन तप के दो मेद बतलाये हैंएक साकांक्ष और दूसरा निराकांक्ष । इनमें से साकांक्ष तपके भी अनेक मेव बतलाये हैं। मोक्ष प्राप्त करने के लिये जो प्रश्न पान स्वाद्य खाद्य के भेद से चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया जाता है उसको अनशन नाम का तप कहते हैं ।। १७८८०
१७८६॥
साकांक्ष अनशन के भेद
क्रियते चोपवासस्य वारपार बुधैः । यदेकभक्तमाप्तेः सः चतुर्थः कथ्यते बुधैः ॥१७६०१ चतुर्भोजनसंत्यागाच्चतुर्थः सार्थकोमहान् । षड्वेलाशनसंस्थागात् षष्ठी द्विवषात्मकः ॥११