________________
- मूलाचार प्रदीप ]
( २७०)
[ षष्ठम अधिकार अर्थ-निर्मल आस्माको धारण करनेवाले जिस मुनि को मनोगुप्ति पूर्ण हो जातो है उन्होंके महाव्रत गुप्ति समिति आदि सब पूर्ण हुए समझना चाहिये । जो मुनि संवेग प्रादि गुणों के समूह से अपने मनको रोक लेते हैं वे अपने समस्त कर्मोके आलव को रोक लेते हैं तथा एर्ग संवर को धारण करते हैं । आस्रव के रुकने और संवर के होने से व्रत समिति आदि समस्त निर्मल गुण प्रगट हो जाते हैं तथा उत्तम क्षमादिक भी समस्त गुण प्रगट हो जाते हैं ।।२१.२३॥
___ मनोगुप्ति पालन करने की प्रेरणाविझायेति मनोगुप्तिस्तात्पर्यणसुखाकरा । विधेया सर्वदा वक्षः समस्तवतसिद्धये ॥२४॥ बाह्यार्थतोनिरोप्दु योऽसमयचंधलं मनः । कुतस्तस्यापरे गप्ती कथ शुद्धावतादयः ॥२५॥ यतः कमप्रसूतेत्र बचः काय द्वयं क्वचित् । सर्वदा चंचसं चित्तं घोरं श्वापदं नणाम् ।।२६।।
__ अर्थ-प्रतएव चतुर पुरुषों को अपने समस्त व्रतों का पालन करने के लिये पूर्णरूप से सुख देनेवाली इस मनोगुप्ति का पालन सर्वथा करते रहना चाहिये । जो मुनि अपने चंचल मनको बाह्य पदार्थों से नहीं रोक सकता उसके अन्य गुप्तियां भी कैसे हो सकती हैं तथा व्रत भी शुद्ध फंसे रह सकते हैं अर्थात् कभी नहीं । क्योंकि बचन और काय से तो कभी कभी कर्म आते हैं परन्तु मनुष्यों के चंचल मनसे नरक देनेवाले घोर फर्म सदा ही पाते रहते हैं ।।२४-२६।।
मनोगुप्ति की महिमा और उसका फलमतःकार्यामनोगुप्तिः सर्वसंवरदायनी । निराकारिणी मुक्तिजननीसदगुणाकरा ॥२७।। मनोगुप्त्याक्षवापकायकषायाखिलद्विषाम् । निरोषो जायते तस्मात्प्रशस्सं ध्यानमंजसा ॥२८॥
तेन स्यातां च सम्पूर्ण परेसंवरनिजरे । तान्या धातिविध गास्ततः प्रादुर्भवेत्सताम् ॥२६॥ केवलज्ञानमात्मोत्थं दिस्यः सः गुणःसमम् । ततो मुक्तिवघूसंगो शनातसुखकारकः ॥३०॥ इत्यादि परमं ज्ञात्वातत्फलं मोक्षकांक्षिभिः। एकात्रव मनोगुप्तिः कार्या सर्वार्थसिद्धये ।।३१॥
अतुलसुखनिधाना स्वर्गमोक्षफमाता जिनगणधरसेप्या कृत्स्नकारिहंत्री । प्रतसकलसुधीयो चित्तगुप्तिः सवा ता श्रयतपरमयरनाद्योगिनोयोगसिद्धच ॥३२॥
अर्थ-अतएव मुनियों को मनोगुप्ति का पालन सदा करते रहना चाहिये। यह मनोगप्ति पूर्स संवर को उत्पन्न करनेवाली है, निर्जरा की करनेवाली है, मोक्ष की माता है और श्रेष्ठ गुणों को खानि है। इस मनोगुप्ति से ही इन्द्रियों का निरोध हो जाता है, वचनगुप्ति और कायगुप्ति का पालन हो जाता है और कषायादिक समस्त