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मुलाचार प्रदीप]
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[ षष्ठम अधिकार रागद्वषमय परिणामों से मनका व्यापार होना नोइन्द्रिय प्रणिधान कहलाता है। यह नोइन्द्रिय प्रणिधान भी अप्रशस्त है, क्रूर है, निन्छ है, समस्त दुःखों का कारण है और त्याज्य है ॥१४-१५॥
अप्रशस्त प्रणिधान के त्याग की प्रेरणाप्रणिधानाप्रशस्तस्यैते भेवा बहवो परे । परब्रव्यममत्वाविजास्स्याज्यागुप्तिवारिभिः॥१६
अर्थ-इस अप्रशस्त प्रणिधान के अनेक भेद हैं और वे परद्रव्यों में ममत्व करने से उत्पन्न होते हैं । इसलिये गुप्ति पालन करनेवालों को इनका त्याग अवश्य कर देना चाहिये ॥१६॥
प्रशस्त मनःप्रणिधान का स्वरूप-- वतगुप्तिसमित्यादिशीलानां रक्षणादिषु । दशलक्षणिक धर्म ध्याने च परमेष्ठिनाम् ।।१७।। स्वास्मनः श्रुतपाठार्थे यन्मन प्रापणं सदा। प्रणिधान प्रशस्तं तत्कायं यस्मात्मनोऽन्तः ॥१८॥
अर्थ-व्रत, गुप्ति और समितियों को रक्षा करने में, शीलों की रक्षा करने में, दशलाक्षणिक धर्म में, परमेष्ठियों के ध्यान में, अपने आत्मा के शुद्ध ध्यान में और शास्त्रों के पठन-पाठन में जो मनको लगाता है उसको प्रशस्त मनःप्रणिधान कहते हैं। मनको वश में करनेवाले मुनियों को यत्नपूर्वक प्रशस्त मनःप्रणिधान धारण करना चाहिये ॥१७-१८॥
प्रशस्त प्रणिधान मनोगुप्ति को पूर्णता का कारणनिविविकल्पं मनः कृत्वानिदेश्यते यथा यथा । परमात्माविधे सत्त्वे चिदानन्दमये पवा ॥१६॥ सिद्धाहयोगिनां ध्याने वागमामृतसागरे । तत्वरत्नाकरे पूर्णा मनोगुप्तिस्तथा तथा ॥२०॥
___ अर्थ-मुनिराज अपने मनके समस्त विकल्पों को हटा कर चिदानंदमय परमात्म तत्व में अथवा अरहंत सिद्ध वा आचार्यों के ध्यान में प्रथवा रत्नों से परिपूर्ण ऐसे प्रागमरूपी अमृत के समुद्र में अपने मनको जैसे-जैसे लगाते हैं वैसे ही वैसे उनकी मनोगुप्ति पूर्णता को प्राप्त होती जाती है ।।१६-२०।।
मनोगुप्ति पालन का फलसम्पूर्ण सम्मनोगुप्तिर्यस्यासीद्धिमलास्मनः। व्रतगुप्तिसमित्याद्यास्तस्य पूर्ण भवन्यहो ॥२१॥ ___ यतो येन मनोई संवेगावगुणोत्करः । तेन कर्माखवः इस्नोरुद्धः कृतावसंवर ॥२२॥ तस्मारकर्माणवाभावाज्जायन्तेनिमलागुणाः । सर्वेक्तसमित्यायाः सम्पूर्णाश्च क्षमादयः ॥२३॥