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- मूलाचार प्रदीप ]
( २६८)
[ षष्ठम अधिकार तीनों गुप्तियां समस्त आस्रवों को रोकने वाली हैं । यह मन पांचों इन्द्रियों के विषयों में गमन करता है। समस्त बाह्य पदार्थोके संकल्प विकल्पोंमें गमन करता है और समस्त कषायों में गमन करता है । अतएब इस मन को इन सबसे रोक कर शीघ्र ही ध्यान अध्ययन आदि क्रियाओं में स्थिर कर देना सर्वोत्तम मनोगुप्ति कहलाती है ॥७-६॥
___मनोगुप्ति के पालने हेतु अशुभध्यान के त्याग की प्ररणामनोगुप्तौप्रयत्नेन प्रणिधानं कुकर्मदम् । अप्रशस्तं व्रतं त्याज्यं ग्राह्य प्रशस्तमंजसा ॥१०॥
अर्थ-इस मनोगुप्ति को पालन करने के लिये पाप कर्मों को उत्पन्न करने बाले समस्त प्रभुम व्यानों का स्वाग कर देना चाहिये और शुभ ध्यान धारण करना चाहिये ॥१०॥
इन्द्रिय प्रणिधान और नो इन्द्रिय प्रणिधान का स्वरूप-- इन्द्रियप्रणिधानं च पंचाक्षविषयोद्भवम् । नोइनियाभिधं लान्यप्रशस्तमितिद्विधा ।।११।।
अर्थ-पांचों इन्द्रियों के विषयों से उत्पन्न होनेवाला ध्यान इन्द्रिय प्रणिधान कहलाता है और नोइन्द्रिय वा मनसे उत्पन्न होनेवाला अशुभध्यान नोइन्द्रिय प्रणिधान कहलाता है । इसप्रकार प्रणिधान के दो भेद हैं ।।११॥
अप्रशस्त इन्द्रिय प्रणिधान का स्वरूपशम्चे रूपे रसे गंधै स्पर्शे सारे मनोहरे । मनोज्ञे वामनोज्ञे च सुखदुःखविधायिनि ॥१२॥ रागवषाक्षमोहाचं गमनंधितनावि यत् । इन्मियप्रणिधानंतप्रशस्तं व पंचबा ॥१३॥
अर्थ-स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द ये पांचों इन्द्रियों के पांच विषय हैं ये पांचों विषय मनोज्ञ भी हैं और अमनोज भी हैं तथा सुख वेनेवाले भी हैं और दुःख देने वाले भी हैं । इन मनोहर और सारभूत दिखने वाले विषयों में रागद्वेष इन्द्रियों की
पटता और मोहायिक के कारण इन्द्रियों का प्राप्त होना वा इन विषयों में गमन करने के लिये इन्द्रियों को लंपटता होना अप्रशस्त इन्द्रिय प्रणिधान कहलाता है। ॥१२-१३॥
अप्रशस्त नोइन्द्रिय प्रणिधान का स्वरूपक्रोमानेखिलेमायालोमेन करेऽशुमे । रागढषाविभावश्चमनोव्यापार एव यः ।।१४।। पुरोरकोषवा निचोषिश्वासातनिबन्धनः । प्रणिधानाप्रशस्तंतनोइम्नियाभिषमतम् ॥१५।।
अर्थ-अनेक प्रकार के अनर्थ करनेवाले और अशुभ क्रोध मान माया लोभमें