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मूलाचार प्रदीप ]
( २६६ )
श्रुतज्ञान की महिमा --
प्रतिगुणसमुद्रं चित्तमातंगसिहं विषयसफर जालं मुक्तिमार्गेकदीपम् ।
कमिधानं ज्ञानविज्ञानमूलं श्रुतनिखिलमदोषं घोषनाः संपठन्तु ॥६५॥ ज्ञानाधारमिमं सम्यगाध्याय ज्ञानशालिनाम् । त्रयोदशविधं वक्ष्ये चारित्राचारसूजितम् ॥६६
[ षष्ठम अधिकार
अर्थ - यह ज्ञान समस्त गुणों का समुद्र है, मनरूपी हाथी को वश करने के लिये सिंह के समान है, विषयरूपी मछलियों के लिये जाल है, मोक्षमार्गको दिखलाने वाला दीपक है, समस्त सुखों का विधान है और ज्ञान विज्ञान का मूल है, इसलिये बुद्धिमानों को ऐसे इस समस्त श्रुतज्ञान का पठन-पाठन निर्दोष रीति से करते रहना चाहिये । इसप्रकार ज्ञानियों के ज्ञानाचार का निरूपण अच्छी तरह किया । अब आगे तेरह प्रकार के उत्कृष्ट चारित्राचार का वर्णन करते हैं ।।६५-६६ ।।
चारित्राचार के कथन की प्रतिज्ञा
महावतानि पंचैव तथा समितयः शुभाः । पंचत्रिगुप्तयमेवाश्चारित्रस्य त्रयोदश ॥ ६७ ॥ अर्थ - पांच महाव्रत, पांच शुभ समिति और तीन गुप्ति ये तेरह चारित्र के भेद हैं ॥९७॥
चरित्राचार के भेद और महाव्रतों का स्वरूप --
सर्वस्मात्प्राणिधाताच्चमुषावादाच्च सर्वथा । प्रवत्तादानतो नित्यं मैथुनादिपरिग्रहात् ||१८|| सामरस्येन निवृतिर्या त्रिशुद्धपात्रकृताविभिः । महान्ति तानि कम्यन्ते महाव्रतानि पंच व ६६ प्रमोष लक्षणं पूर्व प्रोक्त' मूलगुणोऽबुना । सप्रपंच न वक्ष्यामि प्रथविस्तार भीतितः ।। १७०० । अर्थ – मन-वचन-काय की शुद्धता पूर्वक कृत कारित अनुमोदना से पूर्ण रूप से समस्त हिंसा का त्याग कर देना, सर्वथा असत्य भाषण का त्याग कर देना, सर्वथा चोरों का त्याग कर देना, सदा के लिये ब्रह्म का मैथुन सेवन का त्याग कर देना और समस्त परिग्रहों का त्याग कर देना महाव्रत कहलाता है। ये पांचों व्रत सर्वोत्कृष्ट हैं इसलिये इनको महावत कहते हैं । इन सबका लक्षण विस्तार के साथ पहले मूलगुणों के वर्णन में कह चुके हैं श्रतएव ग्रन्थ के विस्तार के भय से यहां नहीं कहते हैं । ।।६८-१७००।।
रात्रि भोजन त्याग और भ्रष्ट प्रवचन मातृका पालन करने की प्रेरणामहाव्रतविशुद्धये स्याम्यं रात्र व भोजनम् । सेव्याः प्रवचनाच्याष्टमातशे यतिभिः सदा ।।