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मूलाचार प्रदीप ]
( २३१)
- [पंचम अधिकार ___ अर्थ-महा मिथ्यात्व के पाप से परिपूर्ण हुए जिन अनंत जीवों ने आज तक जस पर्याय नहीं पाई हैं उनको नित्म अनंतकायिक कहते हैं ॥३८॥
एक निगोद शरीर में दृष्टान्त पूर्वक निगोद जीवों की संख्या का प्रमाण-- जम्बूवीपे मथाक्षेत्र भरतं भरते भवेत् । कौशलः कौशलेऽयोध्यायोध्यायां गहपंक्तयः ।।३।। तथा स्कंधा असंख्याता लोकमाना भवन्ति । एककस्मिन् पृथक् स्कंधे प्रोदिता अंडरा जिनः ।। असंख्यलोकमानारचके कस्मिनगरे तथा । प्राबासाः स्युरसंख्यातलोकतुल्या न संशयः ॥४१॥ एककस्मिन् किलावासे मता पुलषयो बुधः । प्रसंश्यलोकमाना यककस्मिन् पुलवो मुवि ॥४२॥ शरीराणि हासंख्येय लोकमानानि संति च । एककस्मितिकोतस्म शरीरे जंतवः स्फुटम् ||४३॥ प्रतीत कालसिद्ध भ्यः सर्वानन्तेभ्य एव हि । प्रोक्ता स्तीर्थकर रागमैत्रानन्तगुणापरे ।।४।।
अर्थ-जिस प्रकार जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्रादिक क्षेत्र हैं भरत क्षेत्र में कोशल आदि देश हैं, कोशलदेश में अयोध्या आदि नगर हैं और अयोध्या आदि नगरों में घरों की पंक्तियां हैं उसी प्रकार इस संसार में असंख्यात लोक प्रमाण स्कंध हैं । एक-एक स्कंष में प्रसंख्यात लोक प्रमाण अंडर है। एक-एक अंडर में प्रसंख्यात लोक प्रमाण आवास हैं एक-एक आवास में असंख्यात लोक प्रमाण पुलवी हैं। एक-एक पुलयो में असंख्यात लोक प्रमाण शरीर हैं तथा उस एक-एक भिगोत शरीर में अतीत काल के समस्त अनंतानंत सिद्धों से अनंतगुरणे जीव हैं ऐसा भगवान जिनेन्द्रदेव ने आगम में बतलाया है ।।३९-४४।।
पांच स्थावर जीवों की रक्षा की प्रेरणाइत्यानि स्थावरान् पंचविधान विज्ञाययोगिभिः। प्रयत्नेन दया कार्या मीषां वाक्कायमानसः ।।
मर्थ-मुनियों को इसप्रकार स्थावरों के पांचों भेद समझकर मन-वचन-काय से प्रयत्नपूर्वक उन सब जीवों की बया करनी चाहिये ।।४।।
अस जीवों का स्वरूप और उसके भेदसकला विकलाश्चेति द्विधा जीवास्त्रसामताः। विकला विनितुर्याक्षा: शेषा हि सकलेन्द्रियाः ।।
प्रार्थ-दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौहन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीवों को बस कहते हैं । उनके दो भेव हैं। एक विकलेन्द्रिय और दूसरा सकलेन्द्रिय । दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइंद्रिय जीवों को विकलेन्द्रिय कहते हैं और पंचेन्द्रिय जीवों को सकलेन्द्रिय कहते हैं। ॥१४४६॥