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भूलाचार प्रदीप
(२४१)
[पंचम अधिकार ___ यथायथात्र जायेत कर्मा निरासताम् । तथाप्तथासमायातिनिकटमुक्तिनायका ॥१४॥ यदेव निर्जरा सर्ग तपसालिकर्मणाम् । तदेव जायते मोक्षोऽनन्तसोण्याकरा सताम् ।।१५।।
अर्थ-जिसप्रकार आम के फल अधिक गर्मी से जल्दी पक जाते हैं उसीप्रकार मुनिराज भी अपने तीन तपश्चरण की गर्मी से समस्त कर्मों को पका डालते हैं । जिम प्रकार अजीर्ण रोग का रोगी मल निकल जाने से (बस्त हो जाने से) अधिक मुखी होता है उसी प्रकार मुनिराज भी कर्मों की निर्जरा हो जाने से अधिक सुखी हो जाने हैं । मुनियों को जैसे-जैसे कर्मों की अधिक निर्जरा होती जाती है वैसे ही वैसे मुक्तिक्षण नायका उनके निकट आती जाती है । जब तपश्चरण के द्वारा सज्जनों के समस्त को की निर्जरा हो जाती है उसी समय उनको अनंत सुख देनेवाली मोक्ष प्राप्त हो जानी है ॥१५१२.१५॥
निर्जरा के कारण नाचरणादि को प्रेरणाजास्वति मुक्तिकामः सा विधेयामुक्तिकारिणी । खनोसमस्तप्तौख्यानां तयोरत्नत्रयाविभिः॥१६॥
अर्थ-यही समझकर मोक्ष की इच्छा करने वाले पुरुषों को तपाचरण और रत्नत्रय आदि के द्वारा समस्त सुखों की स्वानि और मोक्ष को देनेवाली यह कर्मों की निर्जरा अवश्य करनी चाहिये ।।१६॥
भाव मोक्ष दृश्य मोक्ष का स्वरूपसर्वेषां कमरणां पोत्रमयहेतुजितात्मनः । विशुदः परिणामः सः तावन्मोक्षोऽशुभाम्तकः ।।१७।। केवलमानिनो योत्रविश्लेषः कर्मजीषयोः । लक्ष्या द्रव्यमोक्षः सोऽनन्तशर्माकरोमहान् ॥१८॥
अर्थ- अपने आत्मा को वश करनेवाले मुनियों के समस्त कर्मों के क्षय होने का कारण ऐसा जो अत्यन्त शुद्ध परिणाम होता है उसको समस्त पापों का नाश करने वाला भाव मोक्ष कहते हैं । केवली भगवान के जो कर्मों का सम्बन्ध प्रात्मा से सर्वसा भिन्न हो जाता है । उसको अनंत सुख देनेवाला महान् द्रव्य मोक्ष कहते हैं ॥१७-१८।।
उभय मोक्ष का फलयथापादशिरोन्तं हि चद्धस्य दृढबन्धनः । मोचनाम्न परंशर्म तथा कृत्स्नविषिक्षयात १६ ततःऊर्ध्वस्वभावेनवजेदारमाशिवालयम् । रस्नकर्मवपु शान्गुणाष्टकमयोमहान् ॥२०॥
अर्थ-जिसप्रकार कोई मनुष्य अत्यंत बृढ़ बन्धनों से सिर से पैर तक मंशा हो और फिर उसको छोड़ दिया जाय तो छूटने से वह सुखी होता है उसी प्रकार कर्मों