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मूलाचार प्रदीप ]
( २५६ )
[ षष्ठम अधिकार और एक पर का यो तिहाई भाग, जेह में दो पर एक परका तीसरा भाग और आषाढ़ में दो पर छाया रहनेपर स्वाध्याय की समाप्ति का काल समझना चाहिये ।) मध्याह्न काल को दो घड़ी छोड़ चतुर पुरुषोंको प्रयत्न पूर्वक अपराह्न समय का स्वाध्याय स्वीकार करना चाहिये । दिन के पश्चिम भाग में जब छाया सात पर बाकी रह जाय तब स्वाध्याय समाप्त कर देना चाहिये । पूर्व रात्रि को दो घड़ी छोड़कर मुनियों को पूर्व रात्रि का स्वाध्याय स्वीकार करना चाहिये । तथा मध्य रात्रि की दो घड़ी छोड़ कर पिछली रात्रि का स्वाध्याय प्रारंभ करना चाहिये । दिन के आदि मध्य अंत में तथा राग्नि के आदि मध्य अंतमें दो-दो घड़ी छोड़कर स्वाध्याय करना चाहिये। दिनरात का पूर्व भाप और अंतिम भाग स्वाध्याय के अयोग्य काल है उसको छोड़कर बाकी के समय में बुद्धिमानों को मोक्ष प्राप्त करने के लिये स्वाध्याय का प्रारंभ तथा समाप्ति करनी चाहिये ।।३२-४१॥
उल्कापातादि समय में सिद्धांत शास्त्र के स्वाध्याय का निषेधमग्निवण हि विग्दाहउल्कापातो नभोंगणान । विद्य दिन्द्रधनुःसंध्यापोतलोहितवर्णभा ॥४२॥
दुदिनोभ्रमसंयुक्तो ग्रहणं चन्द्रसूर्ययोः । कलहादिर्धराकंपो धूमाकारात्तमंवरम् ।।४३।। मेघगर्जनमित्याचादोषाविघ्नादिहेतवः । त्याज्याः सिद्धांतसूत्रे स्वाध्यायस्यपाठकादिभिः ॥४४॥
अर्थ-जिस समय अग्निवर्ण का विशाओं का दाह हो, आकाश से उल्कापात हो रहा हो, बिजली चमक रही हो, इन्द्रधनुष पड़ रहा हो, लाल पीले वरणं को संध्या हो, भ्रमपूर्ण दुदिन हो, सूर्य वा चन्द्रमा का ग्रहण हो, युद्ध का समय हो, भूकम्प हो रहा हो, प्राकाश में धएंके आकार का कुहरा फैला हो वा बादल गरज रहा हो ये सब दोष सिद्धांत सूत्रों के पढ़ने में विज्न के कारण हैं । इसलिये पाठकों को इन समयों में स्वाध्याय नहीं करना चाहिये ।।४२-४४।।
काल शुद्धि पूर्वक स्वाध्याय करने का फलकालसिविषामां ये पठन्तिजिनागमम् । निजरा विपुला तेषां कर्मणाभानबोन्यश ॥५॥
अर्थ-जो मुनि इस काल शुद्धि को ध्यान में रखते हुए मिनागम का पठन. पाठन करते हैं उनके कर्मों की बहुत सी निर्जरा होती है । यदि वे अकाल में ही स्वा. ध्याय करते हैं तो उनके कर्मों का आरव ही होता है ।।४।।
द्रव्य शुद्धि का स्वरूप, उसे रखने की प्रेरणा-- रुधिरं च वषादीन मांसपू विडावयः । इत्याधन्याशुचिटण्यारेहे स्वस्यपरस्म वा ॥४६॥