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मूलाचार प्रदीप]
( २६०)
[ षष्ठम अधिकार वजनीयाः प्रयत्नेनपाठक व्याउये । स्वाध्यायस्यसमारंभेद्रव्यशुद्धिरियं मता ॥४॥
अर्थ---स्वाध्याय करने वालों को अपनी द्रव्य शुद्धि बनाये रखने के लिये अपने वा दूसरे के शरीर पर रुधिर, घाव, मांस पीव घिष्ठा आदि लगा हो वा ऐसे ही अन्य मशुद्ध द्रव्य लगे हों तो उनका प्रयत्न पूर्वक त्याग कर देना चाहिये तब स्वाध्याय का प्रारम्भ करना चाहिये । इसको द्रव्य शुद्धि कहते हैं ॥४६-४७।।
क्षेत्र शुद्धि का स्वरूप, क्षेत्र शुद्धि पूर्वक स्वाध्याय की प्रेरणाचतुर्दिक्ष शुभक्षेत्रं चतुःशतकरप्रमम् । रक्ताक्तिरहितं पूर्त संशोध्यक्कियते बुधः ॥४८।। स्वाध्यायो योगपूवारणा नानायाशानहानये । कमेगा निजरामधा शुद्धिमंतान सा ॥४६॥
अर्थ-बुद्धिमान पुरुषों को अपने ज्ञानकी वृद्धि के लिये अज्ञान को दूर करने के लिये और कर्मों की निर्जरा करने के लिये अंग पूर्वो का स्वाध्याय करना चाहिये और उस समय चारों ओर का सौ-सौ हाथ क्षेत्र शुद्ध रखना चाहिये । सौ-सौ हाथ दूर तक के क्षेत्र में रक्त, मांस, हड्डी प्रादि अपवित्र पदार्थ नहीं रहने चाहिये । इसको क्षेत्र शुद्धि कहते हैं ।।४६-४६॥
भाव शुद्धि का स्वरूप और इस पूर्वक स्वाध्याय करने की प्रेरणाकोषमानाविकान्सर्वान् क्लेशेाशोकदुर्मदान । हास्यारति भयादोंश्च स्यक्त्वा प्रसन्नमानसम् ।। कस्वायोगहरतेवक्षः स्वाध्यायोजिनसूत्रनः । विशुनपासास्यविशेयाभावशुद्धिविशुद्धिवा ॥५१॥
____ अर्थ-चतुर मुनि क्रोध, मान, माया, लोभ, क्लेश, ईर्ष्या, शोक, दुर्मद, हास्य, रति, अरति, भय प्रादि सबका त्यागकर तथा मनको प्रसन्न कर मन-वचन-काय की शद्धता पूर्वक जिनसूत्रों का स्वाध्याय करते हैं। इसको विशुद्धता उत्पन्न करनेवाली भाव शुद्धि कहते हैं ।।५०-५१॥
द्रव्यादिक शुद्धि पूर्वक स्वाध्याय का फलइतिसत्कालसाव्यक्षेत्रमावाभिप्तांपराम् । कृत्वा चतुविधां शुटिस्वाध्याये ये पठन्स्यहो । ५२।। पा पाठयन्ति सिद्धांततेषामाविर्भवेत्स्वयम् । अपाविभिगुण: सर्वेःसहाखिलं श्रुतंपरम् ।।५३।।
अर्थ-जो मुनि श्रेष्ठ कालशुद्धि, श्रेष्ठ द्रव्यशुद्धि, श्रेष्ठ क्षेत्रशुद्धि और श्रेष्ठ भावशुद्धि को धारण कर अर्थात् चारों प्रकार की शुद्धि को धारण कर स्वाध्याय में सिद्धांतशास्त्रों का पठन-पाठन करते हैं उनको समस्त ऋद्धि आदि श्रेष्ठ गुणों के साथसाथ समस्त श्रुतज्ञान प्राप्त हो जाता है ।।५२-५३॥