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मूलाचार प्रदीप ]
( २४२)
[पंचम अधिकार से बंधा हुमा आत्मा समस्त कर्मों के नाश हो जाने से अनंत सुखी हो जाता है । तदनस्तर अस्वभाव होने के कारण यह प्रात्मा मोक्ष में जा विराजमान होता है । इसके समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं और शरीर भी नष्ट हो जाता है इसलिये भी यह मोक्ष में पहुंच जाता है। उस समय यह सम्यक्त्व प्रावि आठों गुणों से सुशोभित हो जाता है और सर्वोत्कृष्ट हो जाता है ॥१६-२०॥
सिद्धों के सुख का वर्णन और उसका प्रभावतत्रभुत निराई बाचागमोधरम् । Kriश्य : स्वात्मविषयातिगम् ।।२१॥ एत्सुखं सफलोत्कृष्टं कालत्रितयगोचरम् । विश्वदेवमनुष्याणांतिरश्चांभोगभागिनाम ॥२२॥ तस्मावतातिगंसौख्यं निरोपम्पमुखोद्भवम् । एकस्मिम सभयेभुत सिद्धोऽभूतॊखिलावित् ।।२३।।
अर्थ-वहांपर सिद्ध भगवान जिस सुखका अनुभव करते हैं वह सुख निराबाध है, वाणी के अगोचर है, अनंत है, नित्य है, केवल स्वात्मासे प्रगट होता है और विषयों से सर्वथा रहित है । समस्त देव, समस्त मनुष्य, समस्त तिर्यच और समस्त भोगभूमियों का भूत, भविष्यत और वर्तमान तीनों कालों में होनेवाला जो सर्वोत्कृष्ट सुख है उससे अनंतगुना अनुपम सुख समस्त पदार्थों को जानने वाले अमूर्त सिद्ध भगवान एक समय में अनुभव करते हैं ।।२१-२३॥
मोक्ष सुख प्राप्ति की प्रेरणाविज्ञायेति बुधाःशीन मोशं नित्यगुणाम्बुषिम् । साधयन्तु प्रयत्नेन तपोभि:क्षयायमः ॥२४।।
अर्थ-यही समझकर बुद्धिमान् पुरुषों को तपश्चरण दीक्षा और यम आदि धारण कर प्रयत्नपूर्वक सबा रहनेवाले अनुपम गुणों का समुद्र ऐसा यह मोक्ष अवश्य सिद्ध कर लेना चाहिये ॥२४॥
सप्त तत्त्वों के श्रद्धान की प्रेरणाहमानि सप्ततत्त्वानि भाषितामिजिनागमे । जनकशुसये नित्यं भवे यानिदुगन्वितः ।।२।।
अर्थ--इसप्रकार भगवान जिनेन्द्र देव ने अपने प्रागममें ये सात तत्त्व निरूपण किये हैं । सम्यग्दृष्टि पुरुषोंको अपना सम्यग्दर्शन शुद्ध रखने के लिये सदा इनका श्रद्धान बनाये रखना चाहिये ॥२५॥
पुण्य, पापका स्वरूप और उन प्रकृतियों के नामगुभयोगकिया श्व पुज्यमुत्पद्यते नुणाम् । अशुभैःयापमत्यर्थं प्रत्यहं चुःलकारणम् ॥२६।।